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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 485 “एगोहं नत्थि मे कोई नाहमनस्स कस्सवि। 1152 मैं एकाकी हूँ, संसार के सारे संबंध नाशवान् हैं- इस प्रकार की भावना मोह-बंधन को तोड़ने के लिए खड्ग के समान है। 4. अकेला आया हूँ, अकेला जाऊँगा, इस एकत्व-भावना से मोह पर विजय पाएं - मोह को जीतने के लिए यह भाव सदा रखना चाहिए कि 'अकेला आया हूँ, अकेला जाऊँगा' । जब यह बात मंत्ररूपेण व्यक्ति के जीवन में रम जाए, तो मोह का अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा। व्यक्ति अकेला ही गर्भ में उत्पन्न होता है और अपना शरीर बनाता है, वह जन्मता भी अकेला है, क्रमशः बाल, किशोर, युवान और वृद्ध भी अकेला ही होता है, अकेला ही रोग-शोक भोगता है, अकेला ही संताप-वेदना सहता है और अकेले ही मरता है, अकेला ही नरक के दुःख सहन करता है। नरक में परवशता से दुःख अकेले को ही सहन करने पड़ते हैं। मोह के कारण व्यक्ति अपेक्षा रखना प्रारंभ कर देता है और अपेक्षा की पूर्ति नहीं होती है, तो वह दुःखी होता है, इसलिए मन में जब यह दृढ़ संकल्प रहेगा कि मैं अकेला आया हूँ और अकेला ही जाऊँगा, दूसरे स्वजन-परिजन मेरा कुछ भी नहीं कर सकते, इससे निश्चित रूप से मोह पर जय की जा सकती है। . प्रशमरति में उमास्वाति ने भी कहा है – “मै अकेला हूँ, अकेला पैदा होता हूँ और मरता भी अकेला ही हूँ, नरक में जाता हूँ, तो भी अकेला और स्वर्ग की सैर करता हूँ, तो भी अकेला, मैं अकेला ही मनुष्य-गति में जन्म लेता हूं और पशुयोनि में जाऊँ, तो भी मैं स्वयं ही - यह चिन्तन सतत करते रहना चाहिए। 153 5. समत्व से 'मोह पर विजय - यदि सभी कर्मों से मुक्ति पाना है तथा शारीरिक-मानसिक संतापों से, क्लेशों से मुक्त होना है, तो एकत्व और समत्व की आराधना करना होगी, एकत्व-भावना का चिन्तन प्रतिदिन करना होगा। उपाध्याय श्री 1152 1153 आवश्यकसूत्र, गाथा 7 एकंस्य जन्म मरणे, गतयश्च शुभाशुभा भवावर्ते। तस्मादाकालिका हितमेकेनैवात्मनः कार्यम् ।। - प्रशमरतिप्रकरण - 153 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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