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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
अभिधानराजेन्द्रकोश में इष्ट का वियोग होने पर जो उद्वेग चित्त में उत्पन्न होता है, उसे शोक कहा गया है। 159
स्थानांगसूत्र में कहा गया है –नोकषाय और वेदनीयकर्म के उदय से जीव प्रिय वस्तु या व्यक्ति के विरहादि निमित्तों में अथवा पूर्व में भोगे हुए दुःख के प्रसंगों को याद करके रोता है, चीखता है, चिल्लाता है, आक्रन्दन करता है, छाती पीटता है, माथे को दीवार से टकराता है, भूमि पर लोटता है, आत्महत्या करने को प्रेरित होता है, उसे शोक कहते हैं।1180 सर्वार्थसिद्धि में उल्लेख है - उपकार करनेवाले से सम्बन्ध के टूट जाने पर जो विकलता होती है, वह शोक है। 161 धवला में कहा गया है कि शोक अरतिपूर्वक होता है, जहाँ अरति है, वहाँ शोक है।162
भगवतीसूत्र में कहा गया है कि शोक से असातावेदनीय-कर्म का बंध होता है, 1163 क्योंकि जब जीव दूसरों को दुःख देता है, रुलाता है, पीटता है, परिताप देता है, शोक उत्पन्न करता है, तो जीव असातावेदनीय-कर्म का बंध करता है। तत्त्वार्थासूत्र में भी इसी बात का समर्थन करते हुए आचार्य उमास्वाति लिखते हैं कि दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध, परिवेदन स्वयं करने से, अन्य को कराने से अथवा दोनों को एक साथ उत्पन्न करने से असातावेदनीय-कर्म का बंध होता है। 1164 शोक का विस्तार-क्षेत्र बहुत विशाल है। जब शोक उत्पन्न होता है, तो वह स्वयं को तो शोकग्रस्त करता ही है, साथ ही उसके आस-पास के प्राणी भी उस शोक से प्रभावित होते हैं। क्रोध वस्तुतः व्यक्त होकर समाप्त हो जाता है, परंतु शोक व्यक्ति को दीमक की तरह खोखला बना देता है। शोक जब उत्पन्न होता है, तो व्यक्ति निराश हो जाता है। उसे संसार की कोई भी वस्तु इष्ट नहीं लगती है। वह अन्दर ही अन्दर अपने आपको
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1) इष्टवियोगनाशादिजनिते चित्तोद्वेगे – वही 2) नियमसार, गाथा 131 नोकषायवेदनीयकर्मभेदे, यदुदयेन शोकरहितस्यापि जीव स्याक्रन्दनादिः शोको जायते। -स्थानांगसूत्र- 9/69 अनुग्राहकसंबन्धविच्छेदे वैक्लव्यविशेषः शोकः । - सर्वाथसिद्धि-6/11-338/12 अरदीए विणा सोगाणुप्पत्तीए। - धवला- 12/4 परदुक्खणयाये, परसोयणयाए, परतिप्पणयाए, परपिट्टणयाए, पर परियावणयाए, बहूणं जाव सत्ताणं दुक्खणयाए सोयणयाए जाव परियावणयाए एवं खलु गोयमा! जीवाणं अस्सायावेयणिज्जाकम्मा किज्जन्ते। - भगवती, श. 7 उ. 6, सू. 286 दुःखशोक तापाक्रन्दनवधपरिवेदनान्यात्म परोभयस्थानान्य सद्देद्यस्य।-तत्त्वार्थसूत्र- 6/12
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