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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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मानसिक-तथ्य नैतिक-दृष्टि से अशुभ होते हैं, उन्हें नोकषाय कहा गया है। कषायों के सहचारी कारणरूप मनोभावों को नोकषाय कहा गया है, यद्यपि मनोवैज्ञानिक-दृष्टि से विचार करने पर नोकषाय वे प्राथमिक स्थितियां हैं, जिनसे कषाय उत्पन्न होती है1111 और जो कषायों के परिणाम भी होते हैं। नोकषाय के भेद भी नौ हैं, वे इस प्रकार हैं- 1. हास्य, 2. रति, 3. अरति, 4. शोक, 5. भय, 6. जुगुप्सा, 7. स्त्रीवेद, 8. पुरुषवेद, 9. नपुंसकवेद।
उत्तराध्ययनसूत्र में नोकषाय को 'सप्तविध' या 'नवविध' कहा गया है।1113 वस्तुतः, नोकषाय कषायों का हेतु और परिणाम-दोनों होते हैं। इस प्रकार, मिथ्या अथवा सम्यक समझ के अभाव के कारण कषाय जन्म लेते हैं और कषाय के कारण दृष्टिकोण दूषित होता है, इसलिए कहा गया है कि दर्शनमोह ओर चारित्रमोह में कौन प्रारंभिक है -यह बताना कठिन है। जैसे मुर्गी और अण्डे में कौन पहले हुआ- यह बताना संभव नहीं है, उसी प्रकार कषायों के कारण मोह उत्पन्न होता है या मोह के कारण कषाय, इसमें किसी की प्राथमिकता निर्धारित कर पाना संभव नहीं है।114
___ इस प्रकार, जहाँ मोह की सत्ता होती है, वहाँ जन्म-मरण की परंपरा सतत रूप से चलती रहती है, क्योंकि जैनाचार्यों की मान्यता है कि जब तक व्यक्ति मोहजन्य कषायों से ग्रसित है, तब तक मुक्ति संभव नहीं है। मुक्ति के लिए कषायों पर, अर्थात् मोह पर विजय प्राप्त करना आवश्यक है।
मोह मोक्ष में बाधक
जो अपना नहीं है, उसके प्रति ममत्व की भावना रखना मोह है। वस्तुतः, मोह मोक्ष में बाधक है। 'तत्त्वार्थसूत्र' के दसवें 'मोक्ष' अध्ययन के
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उद्धृत-जैन बौद्ध तथा गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, डॉ.सागरमल जैन, पृ.501 1) तत्त्वार्थसूत्र- 8/10 2) उत्तराध्ययनसूत्र- 32/102_3) स्थानांगसूत्र - 9/500 4) प्रज्ञापनासूत्र- 23/2 5) कर्मप्रकृति 62 6) प्रवचनसारोद्धार, द्वार 215, भाग-1, साध्वी हेमप्रभाश्री, पृ. 262 उत्तराध्ययनसूत्र- 33/11 जहा य अण्डप्पभवा बलागा अण्डं बलागप्पभवं जहा य। एमेव मोहाययणं खु तण्हा मोहं च तण्हाययणं वयन्ति।। - उत्तराध्ययनसूत्र-32/6
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