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________________ 474 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व प्रथम सूत्र में कहा गया है- “मोह के क्षय होने पर और ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्तराय के क्षय से केवलज्ञान प्रकट होता है। 1115 वाचक उमास्वाति के अनुसार, मोह को सर्वप्रथम रखने का मूल कारण यह है कि सभी कर्मों के बंध का प्रधान कारण मोह ही है। जहाँ मोह है, वहाँ राग-द्वेष हैं, जहाँ रागद्वेष हैं, वहाँ कषाय हैं, जहाँ कषाय हैं, वहाँ नो कषाय हैं, जहाँ नोकषायादि हैं, वहाँ अठारह पापस्थानों का सेवन होता है और जहाँ अठारह पापस्थानों का सेवन होता है, वहाँ निश्चित रूप से कर्मबंध होता है। उत्तराध्ययन में कहा गया है -“कर्मबंध के बीज रागद्वेष हैं और राग-द्वेष की उत्पत्ति मोह से होती है। वह मोह ही जन्म-मरण का मूल कारण है और जन्म-मरण की यह परम्परा ही वास्तव में दुःख है।"1116 जब तक मोह को नष्ट नहीं करेंगे, तब तक मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता। "मोह के नष्ट होने पर ही तृष्णा, दुःख, लोभ, परिग्रह -सभी नष्ट हो जाते हैं।" 1117 मोहकर्म सब कर्मों में सबसे बलवान् है, क्योंकि मोह व्यक्ति के दर्शन और चारित्र-गुण को दूषित करता है। दर्शन-गुण के दूषित होने पर जो पदार्थ जैसा है, उसकी उसी,रूप में प्रतीति नहीं होने देता है। मोह के कारण दृष्टि दूषित हो जाती है, सही-गलत का भान नहीं रहता, गलत को भी सही मान लिया जाता है और इस मिथ्या ज्ञान के कारण व्यक्ति बंधन के पाश में बंध जाता है। पंचाध्यायी के अनुसार, 'दर्शनमोहनीय के उदय से जीव अनात्मीय पदार्थों को आत्मीय और अधर्म को धर्म समझने लगता है। 118 वस्तुतः, मोह की उपस्थिति से व्यक्ति की स्थिति मदोन्मत पुरुष के जैसी हो जाती है। जब व्यक्ति सम्यक्-दर्शन से पतित होता है, तो मोह के कारण उसका चरित्र दूषित होता है, उसमें 'अहम्' और 'मम्' का भाव प्रबल होता है। मोह-ममत्व के कारण ही संसार में सारे दुष्कृत्य किए जाते हैं। मैं सुखी होऊं, मेरा परिवार सुखी रहे, मुझे मान-सम्मान मिले, मेरी प्रतिष्ठा समाज में बनी रहे- इन सबको प्राप्त करने के लिए वह दुष्कृतों को करता है और ।। 1116 117 मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम्। - तत्त्वार्थसूत्र- 10/1 रागो य दासो विय कम्मबीयं कम्मं च मोहप्पभवं वयन्ति। कम्मं न जाई-मरणस्स मूलं दुक्खं च जाई-मरणं वयन्ति ।।-उत्तराध्ययनसूत्र-32/7 वही- 32/8 तथा दर्शनमोहस्य कर्मणस्तूदयादिह। अपि यावदनात्मीयमात्मीयं मनुते कुट्टकू।। - पंचाध्यायी- 2/990 118 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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