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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
मोहजन्य कषायिकभावों के कारण संसार–परिभ्रमण की वृद्धि होती है, क्योंकि कषाय ही कर्मबन्ध का विशिष्ट हेतु है। कषाय के कारण ही कर्मों का स्थितिबन्ध और रसबन्ध होता है और जब तक ये दोनों हैं, तब तक जीव मुक्त नहीं हो सकता, क्योंकि बन्ध के अन्य कारण मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद भी कषाय के उदय से ही निष्पन्न होते हैं।
दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है -क्रोधादि चारों कषाय संसाररूपी वृक्ष (जन्म-मरणरूपी चक्र) के मूल का सिंचन करते हैं,107 क्योंकि रसबन्ध
और स्थितिबन्ध का सबसे बड़ा आधार अगर कोई है, तो कषाय ही हैं। वस्तुतः, इन चारों कषायों, अर्थात् क्रोध, मान, माया, और लोभ की चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं, अतः यहाँ उनके विस्तार में जाना उचित नहीं होगा, फिर भी हम इतना तो कह सकते हैं कि जब तक कषाय की सत्ता है, तब तक मोह रहता है।
चारित्रमोहनीय का दूसरा उपप्रकार 'नोकषाय' है। नोकषाय शब्द दो शब्दों के योग से बना है। नोकषाय जैन-दार्शनिकों ने 'नो' शब्द को साहचर्य के अर्थ में ग्रहण किया है, 'नो' का अर्थ -ईषत्, अल्प अथवा सहायक है,108 अतः हम इन्हें अल्प या छोटे कषाय अथवा सहायक कषाय कह सकते हैं। वस्तुतः, नोकषाय प्रधान कषायों के साथ उत्पन्न होते हैं
और उन्हें उत्तेजित भी करते हैं। पाश्चात्य–मनोविज्ञान में उन्हें मूलप्रवृत्तियाँ Instincts} कहा गया है। 1109 कर्मग्रंथ के अनुसार, जो कषाय न हों, किन्तु कषाय के सहवर्ती हों, कषाय के उदय के साथ जिनका उदय होता है, कषायों को उत्पन्न करने में तथा उद्दीपन करने में जो सहायक हों, उन्हें 'नोकषाय' कहते हैं। 110 नोकषायों पर पाश्चात्य-विचारकों ने जहाँ मात्र मनोवैज्ञानिक-दृष्टि से विचार किया है, वहाँ जैन-विचारणा में जो
कषमयन्ते गच्छन्त्येभिर्जन्तवः इति कषायाः ।। - प्रथम कर्मग्रन्थ टीका गा. 17 1107 चत्तारि एए कसिणा कसाया सिंचंति मूलाणि पुणभवस्स। - दशवैकालिकसूत्र 8/40 1108 ___1) अभिधानराजेंन्द्रकोश, खण्ड-4, पृ. 2161 2) जैन बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, डॉ. सागरमल जैन, पृ. 503
तुलना कीजिए - जीवनवृत्ति और मृत्यु वृत्ति (फ्रायड) 1110
1) कषाय-सहवर्तित्वात् कषाय-प्रेरणादपि हास्यादिनवकस्योक्ता नोकषाय-कषायता। – प्रथम कर्मग्रन्थ टीका 17 जस्स कम्मस्स उदएण जीवो णोकसाये वेदयति तं णोकसाय वेदणीयं णाम - धवला, 13/5
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