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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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मोह के प्रकार
मुक्ति के लिए ज्ञान की आवश्यकता है, किन्तु जब तक व्यक्ति सत्य के संदर्भ में मोह से युक्त रहता है, तो वह परद्रव्यों को अपना मानता रहता है। जैन-परम्परा में मोह को दो प्रकार से वर्गीकृत किया गया है।104 एक, दर्शनमोह और दूसरा, चारित्र-मोह। दर्शनमोह का अर्थ विपर्यय या विपरीत समझ है। ज्ञान और दर्शन -दोनों का सम्यक् न होना दर्शनमोह कहा जाता है और उसके कारण जो आचरण प्रदूषित होता है उसको चारित्रमोह कहते हैं। दर्शनमोह भ्रान्त दृष्टिकोण का सूचक है और चारित्रमोह मिथ्या आचरण का सूचक है। जैन-परम्परा में कहा गया है कि दर्शनमोह के कारण मिथ्या दृष्टिकोण या मिथ्या समझ उत्पन्न होती है और इसके फलस्वरूप व्यक्ति का आचरण भी दूषित हो जाता है, जो कषायों का जनक है।
___ मोह वस्तुतः दोहरा कार्य करता है। एक ओर से वह आत्मा के दर्शन अर्थात् श्रद्धा को विकृत व भ्रष्ट करता है, तो दूसरी ओर से वह चारित्र को विकृत और कुण्ठित करता है। इस कारण से मोह के दो रूप हैं। एक है - श्रद्धारूप और दूसरा है - प्रवृत्तिरूप। अन्य दर्शनों ने जिसे 'अविद्या' या 'माया' कहा है, उसे जैनदर्शन ने मोह कहा है। दर्शनमोह के कारण सम्यक दृष्टिकोण लुप्त-सा हो जाने से जीव मिथ्या धारणाओं और विचारधाराओं का शिकार हो जाता है, उसकी विवेक-बुद्धि असन्तुलित हो जाती है। चारित्रमोह के कारण वह परभाव को स्वभाव मान बैठता है। वस्तुतः, चारित्रमोह को दो भागों में विभक्त किया गया है -कषायमोह और नोकषाय-मोह । 105
- कषाय, अर्थात् जो आत्मा के स्वाभाविक-गुणों शान्ति, मृदुता, ऋजुता और समता आदि को कृश या नष्ट करे, उसे कषाय कहते हैं। 106
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जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग-3, पृ. 340 1) चरित्तमोहणं कम्मं दुविहे तु वियाहि यं। कसाय-मोहणिज्जंतु नोकसायं तहेव यं। - उत्तराध्ययनसूत्र -33/10 2) दुविहं चरित्त-मोहं-कसायवेयणीयं नोकसायमिदि -कम्मपयडी, 55 3) प्रज्ञापनासूत्र- 23/2 1) कषः संसारस्तस्य आयो लाभ इति कषायः । 2) चारित्र परिणामकषणात् कषायः । -तत्त्वार्थराजवार्त्तिक- 9/7 3) कष्यन्ते हिंस्यन्ते परस्परमस्मिन प्राणिन इति कषः ।
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