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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
मृगयोनि में जन्म लेना पड़ा। 1099 रामायण के अनुसार, दशरथ का अपनी पत्नी कैकेयी के प्रति मोह के कारण ही श्रीराम को चौदह वर्ष का वनवास स्वीकारना पड़ा। 100
अतः, मोह के कारण आत्मा मूढ़ बनकर अपने हिताहित का कर्तव्य-अकर्तव्य का, सत्य-असत्य का, कल्याण-अकल्याण का भान भूल जाता है। जैसे मद्यपान करके मुनष्य भले-बुरे का विवेक खो बैठता है, परवश होकर अपने हिताहित को नहीं समझता, वैसे ही मोह के प्रभाव से जीव सत्-असत् के विवेक से रहित होकर परवंश हो जाता है और उसे आत्मा के शुद्ध स्वभाव का भान नहीं रहता। वस्तुतः, जो मोहित करता है, या जिसके द्वारा मोहा जाता है, वह मोहनीय-कर्म है। 101 जो कर्म आत्मा में मूढ़ता उत्पन्न करता है, वह कर्म मोहनीय कर्म कहलाता है। आठ कर्मों में यह सर्वाधिक शक्तिशाली है। सात कर्म यदि प्रजा हैं, तो मोहनीय-कर्म राजा है। यह कर्म प्राणीय-जीवन को सबसे अधिक प्रभावित करता है। दूसरे कर्म जीव की एक-एक शक्ति को आवृत्त करते हैं, 1102 जबकि मोहनीय-कर्म जीव की अनेक मूलभूत शक्तियों को आवृत्त नहीं, विकृत और कुण्ठित भी कर देता है, जिससे आत्मा अपने शुद्ध ज्ञाता स्वभाव (ज्ञाता-दृष्टाभाव) को भूलकर राग-द्वेष में फंस जाता है। परिणामस्वरूप, मोहनीय-कर्म को आत्मा का शत्रु कहा गया है, क्योंकि वह समस्त दुःखों की प्राप्ति में निमित्त कारण है। यही कारण है कि मोहनीय कर्म को भी जन्म-मरणादि दुःखरूप संसार का मूल कहा है। मोहनीय-कर्म को आगमों से कर्मों का सेनापति कहा है। जिस प्रकार सेनापति के चल बसने पर सेना में भगदड़ मच जाती है, वैसे ही मोहकर्म के नष्ट हो जाने पर शेष सारे घातीकर्म नष्ट हो जाते हैं, शेष रहे चार अघातीकर्म भी आयुष्यकर्म की समाप्ति होते ही समाप्त हो जाते हैं। 103
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कल्याण, भागवतांक, वर्ष-16, अंक-1, 1998, पृ. 418 वाल्मीकि रामायण से मोहयति मोह्यतेऽनेति वा मोहनीयम्। – सर्वार्थसिद्धि- 8/4/380/5 क) कर्मवाद, पृ. 60 ख) धर्म और दर्शन, आचार्य देवेन्द्र मुनि, पृ. 72 ग) जैनदर्शन में आत्मविचार, डॉ. लालचन्द्र जैन, पृ. 204 क) धवला- 1, 1, 1/43 ख) कर्मवाद, पृ. 60
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