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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व अर्थात्, हे प्रभु! मेरे मन में प्राणियों के प्रति मित्रता, गुणीजनों के प्रति प्रमोद, दुःखियों के प्रति करुणा तथा दुष्टजनों के प्रति माध्यस्थ-भाव विद्यमान रहे । " ,1080 इस प्रकार, इन भावनाओं के माध्यम से समाज के विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों से पारस्परिक सहयोग और मैत्रीभावादि की स्थापना कर सकते हैं । पारिवारिक और सामाजिक - जीवन में हमारे पारस्परिकसम्बन्धों को सुमधुर एवं समायोजनपूर्ण बनाने तथा सामाजिक- टकराव के कारणों का विश्लेषण कर उन्हें दूर करने के लिए उनका योगदान महत्त्वपूर्ण है। इस प्रकार, आचारशुद्धि पर बल देकर व्यक्ति - सुधार के माध्यम से समाज-सुधार का मार्ग प्रशस्त किया है। 8. धर्म व्यक्ति को जीवन जीने की शैली सिखाता है 464 धर्म जीवन जीने की कला है। स्वयं सुख से जीने की तथा औरों को सुख से जीने देने की कला है। वास्तविक सुख की अनुभूति हमारे भीतर ही होती है। वह सुख आंतरिक शांति में है और आंतरिक शांति चित्त की विकार - विहीनता में है, चित्त की निर्मलता में है । चित्त की विकार- विहीन अवस्था ही वास्तविक सुख-शांति की अवस्था है, जो धर्म से ही प्राप्त की जा सकती है, वही शुद्ध धर्म है । धर्म महज शास्त्रीय - ज्ञान में नहीं, आचरण में है । "धर्म सैद्धांतिक - मान्यताओं में नहीं, सिद्धांतों का जीवन जीने में है। धर्म आचरण में उतरे, तो ही परिपूर्ण होता है, सम्यक् होता है, अन्यथा मिथ्या ही रहता है, चाहे उसे बौद्ध कहें या जैन, ईसाई कहें या हिन्दू, मुस्लिम कहें या यहूदी, पारसी कहें या सिक्ख या और कुछ | " धर्मपालन का मुख्य उद्देश्य है - हम अच्छे आदमी बनें। धर्म का सार तो चित्त की शुद्धता में है, राग-द्वेष, मोह के बंधनों से मुक्त होने में है, विषम परिस्थितियों में भी चित्त की समानता बनाए रखने में है, मैत्री, करुणा, मुदिता में है। 1081 धर्म मोक्ष का साधन भारतीय - चिंतन में धर्म सामाजिक - व्यवस्था और सामाजिक- शांति के लिए है, क्योंकि धर्म को 'धर्मो धारयति प्रजाः ' 1082 के रूप में भी 1080 उद्धत् 1081 1082 धर्म का मर्म, डॉ. सागरमल जैन, पृ. 62 धर्म जीवन जीने की कला, सत्यनारायण गोयनका, पृ. 76 1) मनुस्मृति - 8/15 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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