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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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परिभाषित कर उसका संबंध हमारे सामाजिक-जीवन से जोड़ा गया है। वह लोक-मर्यादा और लोक-व्यवस्था का ही सूचक है। पुरुषार्थ-चतुष्टय में केवल मोक्ष ही एक ऐसा पुरुषार्थ है, जिसकी सामाजिक-सार्थकता विचारणीय है।
_ 'मोक्ष' शब्द संस्कृत की 'मुच्' धातु से निष्पन्न हुआ है, जिसका शाब्दिक अर्थ है -मुक्त करना, स्वतंत्र करना, छोड़ देना एवं ढीला कर देना, इसलिए मोक्ष का अर्थ है- मुक्ति, स्वतंत्रता, छुटकारा एवं निवृत्ति। 083 यह एक धार्मिक-सिद्धांत है, जिसका अर्थ है -संसार से निवृत्ति और आध्यात्मिक-जीवन में चिर-विश्रान्ति।
मोक्ष का संबंध मुख्यतः मनुष्य की मनोवृत्ति से है। बंधन और मुक्ति- दोनों ही मनुष्य के मनोवेगों से संबंधित हैं। राग-द्वेष, आसक्ति, तृष्णा, ममत्व, अहम् आदि की मनोवृत्तियाँ ही बंधन हैं और इनसे मुक्त होना ही मुक्ति है। मुक्ति की व्याख्या करते हुए जैन-दार्शनिकों ने कहा था कि मोह और क्षोभ से रहित आत्मा की अवस्था ही मुक्ति है। आचार्य शंकर कहते हैं –'वासनाप्रक्षयो मोक्षः । 1984
वस्तुतः, मोह और क्षोभ हमारे जीवन से जुड़े हुए हैं और इसलिए मुक्ति का संबंध भी हमारे जीवन से ही है। वस्तुतः, मोक्ष मानसिक तनावों से मुक्ति है। मोक्ष या मुक्ति का अर्थ है- छुटकारा । मनुष्य को सब दुःखों से छुटकारा मिल जाए- यही मोक्ष है। भारतीय-साहित्य में मोक्ष के पर्यायवाची अनेक शब्द हैं, उदाहरणतः –मुक्ति, सिद्धि, निर्वाण, अमृतत्व, बोधि, विमुक्ति, विशद्धि, कैवल्य इत्यादि। मोक्ष का अर्थ है -आध्यात्मिक-परिपूर्णता, अन्तिम लक्ष्य की प्राप्ति एवं दुःखों की समाप्ति। जो मोक्ष प्राप्त कर लेता है, वह संसार में पुनः वापस नहीं आता, साथ ही, वह शुभ और अशुभ से ऊपर उठा हुआ होता है और सदैव शाश्वत शांति का उपभोग करता है। ..
निर्वाण और मोक्ष -ये दोनों शब्द पर्यायार्थक हैं। निर्वाण का अर्थ है- क्लेशों और तृष्णा की समाप्ति। इसका संबंध अविनश्वर और सर्वोच्च
2) जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-2, डॉ. सागरमल जैन, पृ. 157 1083 संस्कृत-हिन्दी कोश, वामन शिवराम आप्टे, पृ. 819 1084 विवेकचडामणि, 318
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