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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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जो आत्मसन्तोषी और अपने धर्म में स्थित है, वही सुख प्राप्त करता है। कवि रहीम ने कहा है -
गोधन, गजधन, बाजिधन और रतनधन खान। जब आवे सन्तोष धन, सब धन धूरि समान।।
जीवन में जिस सुख और शान्ति की प्राप्ति की अपेक्षा हमें है, वह न तो इस लक्ष्यविहीन भौतिक-दौड़ से प्राप्त हो सकती है और न आवश्यकताओं को निर्बाध गति से बढ़ाने से। वस्तुतः, वास्तविक सुखशान्ति तो अन्दर ही है और धर्म इस शान्ति की स्थापना करता है।
6. धर्म पारिवारिक और सामाजिक-जीवन में समरसता लाता है -
भारतवर्ष धर्मप्रधान देश है। भारत की यह ख्याति आधुनिक भारतीय-जीवन के कारण नहीं, वरन् इस कारण है कि प्राचीनकाल से भारत की प्रजा का जीवन धर्म से अनुप्राणित रहा है। जब से मानव-समाज का निर्माण हुआ, सभ्यता और संस्कृति का भी अभ्युदय हुआ, तभी से प्रजा के एक विशिष्ट वर्ग ने धर्मसम्बन्धी चिन्तन और उसके प्रचार-प्रसार के लिए अपना जीवन समर्पित किया और उस वर्ग की परम्परा आज भी अक्षुण्ण रूप से चली आ रही है।
धर्म व्यक्ति और समाज के बीच एक सेतु का कार्य करता है। समाज में बुराइयों को धर्म नियंत्रित करता है और परिवार में भी शान्ति, समता और सौहार्द्र को स्थापित करता है। इस प्रकार, धर्म पारिवारिक और सामाजिक जीवन में समरसता लाता है। 7. धर्म पारस्परिक सहयोग और मैत्री-भाव का संस्थापक है -
धर्म व्यक्ति को मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ की भावनाओं से ओतप्रोत करता है। आचार्य अमितगति कहते हैं -
सत्वेषु मैत्री गुणीषु प्रमोदं क्लिष्टेव जीवेषु कृपा-परत्वम् । मध्यस्थभावं विपरीत वृत्तो, सदाममात्मा विद्धातु देव।।
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