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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
रखने वाला व्यक्ति धर्म के प्रति लगाए गए आक्षेपों से विचलित नहीं होता है। धार्मिक आस्था की अनिवार्यता पर बल देते हुए महात्मा गाँधी ने यहाँ तक कह डाला है -"धर्म-भावना के बिना कोई भी बड़ा कार्य नहीं हुआ है और न कभी भविष्य में होगा। 1078 मनुष्य की समस्त उपलब्धियाँ धर्म के सहयोग से परिपूर्ण होती हैं और एक उज्ज्वल भविष्य का संदेश देती हैं। वस्तुतः, धर्म मानवमात्र का कल्याणकर्ता है। यदि धर्म को मानव-जीवन से पृथक् कर दिया जाए, तो मानव बर्बर हो जाएगा। उसके जीवन का अर्थ और मूल्य समाप्त हो जाएगा और उसके अस्तित्व की उपादेयता नष्ट हो जाएगी। धर्म व्यक्ति को सद्गुणों से युक्त बनाता है। यदि धर्म के प्रति श्रद्धा और विश्वास सही और नैष्टिक है, तो सत्य ईश्वर के दर्शन होंगे। मनुष्य को धर्म के प्रति पूर्ण आस्थावान् होना उसकी उन्नति और विकास के लिए अत्यन्त महत्त्व रखता है।
5. धर्म शान्ति की स्थापना करता है -
धर्म मानव-मानव से प्रेम और विश्व-बन्धुत्व की भावना को जाग्रत करता है तथा एकता और शान्ति का संचार करता है। आधुनिक युग भौतिक-विकास का युग है, भौतिकता और आधुनिक वस्तुओं की प्रतिस्पर्धा के कारण व्यक्ति अशान्त बना हुआ है। व्यक्ति की इच्छा, आकांक्षा, तृष्णा, आधुनिक नवीन साधनों के प्रति मूर्छा, लालसा ने अशान्ति की ज्वाला विकराल कर दी है। पग-पग पर व्यक्ति पीड़ा और कष्टों को झेलता है। वह जानता है, पर पकड़ता उसी आग को है, जो उसे निरन्तर जला रही है। इस कारण, समाज के प्रत्येक घटक में घृणा, अविश्वास, मानसिक तनाव व अशान्ति के बीज प्रस्फुटित हो रहे हैं। वर्तमान युग में मनुष्य अपनी आवश्यकताओं या इच्छाओं को असीमित रूप में बढ़ाकर फिर उनकी पूर्ति हेतु मारा-मारा फिरता है और सुख प्राप्ति की आशा करता है। यह तो मरुभूमि में प्यास बुझाने के समान है। इच्छाओं की वृद्धि में सुख नहीं, वरन् उनके संयम और सन्तोष में ही सुख है। महाभारत में कहा गया है
स्व संतुष्टः स्वधर्मस्थो यः सर्वे सुखमेधते ।।1079
1078 1079
नीति : धर्मः दर्शन (गांधीजी) सम्पा. रामनाथ 'सुमन', पृ. 143 महाभारत
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