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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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2. धर्म व्यक्ति के विकास का अद्वितीय साधन है -
डॉ. राधाकृष्णन् ने धर्म को व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के साधन के रूप में स्वीकार किया है। उन्होंने धर्म की व्याख्या करते हुए कहा है"यह चारों वर्गों के और चारों आश्रमों के सदस्यों द्वारा जीवन के चार प्रयोजनों (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) के सम्बन्ध में पालन करने योग्य मनुष्य का समूचा कर्त्तव्य है। जहाँ सामाजिक-व्यवस्था का सर्वोच्च लक्ष्य है कि मनुष्य को आध्यात्मिक-पूर्णता और पवित्रता की स्थिति तक पहुंचाने के लिए प्रशिक्षण लिया जाए, वहाँ इसका एक अत्यावश्यक लक्ष्य इसके सांसारिक-लक्ष्य के कारण इस प्रकार की सामाजिक-दशाओं का विकास करना भी है, जिनमें जनसमुदाय नैतिक, भौतिक और बौद्धिक- जीवन के ऐसे स्तर तक पहुंच सके, जो सबकी भलाई एवं शान्ति के लिए हो, क्योंकि यह दशा प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन और अपनी स्वतंत्रता को अधिकाधिक वास्तविक बनाने में सहायता देती है।" 1077 इन्हीं मार्गों से । चलकर व्यक्ति अपना विकास करता है, अतः धर्म व्यक्ति के विकास का अद्वितीय साधन है।
3. धर्म व्यक्ति को तनावों से मुक्त करता है -
मानव-मन की अशान्ति और दुःख के कारणों के मूल में मानसिक तनाव या मनोवेग ही मुख्य हैं। मानव-मन की अशान्ति एवं उसके अधिकांश दुःख कषायजनित हैं, अतः शान्त और सुखी जीवन के लिए मानसिक-तनावों एवं मनोवेगों से मुक्ति पाना आवश्यक है। धर्म व्यक्ति के तनावों को मुक्त करने में सहायक होता है। धर्म व्यक्ति के जीवन में समत्व की स्थापना करता है और कषायों को प्रशम करता है, इससे व्यक्ति तनावों से मुक्त हो जाता है। कितना भी क्रोधी व्यक्ति परमात्मा के मन्दिर में प्रवेश करता है, तो उसका क्रोध शान्त हो जाता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि धर्म व्यक्ति के तनावों को मुक्त करता है।
4. धर्म व्यक्ति को सद्गुणों से युक्त बनाता है -
धर्म मानव के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को सम्यक दिशा प्रदान कर भौतिक और आध्यात्मिक-विजय प्राप्त कराता है। धर्म में सच्ची आस्था
1077 सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन का धर्म एवं दर्शन, डॉ. डी.ए. गंगाधर, पृ. 53
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