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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
कहा गया है – 'जो कर्म के चय (संचय) को रिक्त करे, वह चारित्र है।1057 चरित्र की यही व्याख्या निशीथभाष्य में भी उपलब्ध होती है। 1058 आध्यात्मिक-जीवन की पूर्णता चारित्र के माध्यम से ही प्राप्त होती है। आचारांगनियुक्ति में कहा गया है - ज्ञान का सार आचरण है और आचरण का सार निर्वाण या परमार्थ की उपलब्धि है। डॉ. सागरमल जैन के अनुसार, चित्त अथवा आत्मा की वासनाजन्य मलिनता और अस्थिरता को समाप्त करना सम्यकचारित्र है।1059
वस्तुतः, चित्र का सम्बन्ध शरीर से व चरित्र का सम्बन्ध आत्मा से है। भारतीय-जनमानस चित्र को आदर की दृष्टि से देखता है, फिर भी वह चित्र की प्रतिष्ठा में उतना श्रद्धावान् नहीं, जितना चरित्र में है, क्योंकि चरित्र गुण को प्रतिबिम्बित करता है और सम्यक् आचरण ही व्यक्ति को धर्म में स्थिर करता है।
दूसरे अर्थ में, स्वरूप में रमण करना ही चारित्र है, यही वस्तु का स्वभाव होने से धर्म है। 1000 द्रव्य जिस समय जिस भाव-रूप अर्थात पर्याय में परिणमन करता है, उस समय वह उसी रूप में होता है -ऐसा कहा गया है, इसलिए धर्मपरिणत आत्मा को धर्म समझना चाहिए। आध्यात्म-साधना में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र -इन तीनों का गौरवपूर्ण स्थान है। 1067 दृष्टि की विशुद्धि से ज्ञान विशुद्ध होता है 1062 और ज्ञान की विशुद्धि से ही चारित्र निर्मल होता है1063 और इन तीनों के सम्मिलित अर्थ को धर्म कहते हैं।
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उत्तराध्ययनसूत्र- 28/33 निशीथभाष्य, उद्धत जैनदर्शन और कबीर का तुलनात्मक अध्ययन, पृ. 125 1) आचारांगनियुक्ति -244 2) जैन, बौद्ध और गीता के आचार-दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-2, पृ. 84 स्वरूपे चरणं चारित्रं। स्वसमय प्रवृत्तिरिक्तर्थः तदेव वस्तुस्वभावत्माद्धर्म। - प्रवचनसार, गाथा 7-8 तिविहे सम्मे पण्णत्ते, तं जहा–णाणसम्मे, दंसणसम्मे चरित्तसम्मे। -स्थानांगसूत्र3/4/114 नादंसणिस्स नाणं - उत्तराध्ययनसूत्र- 28/30 नाणेव विना न हुंति चरणगुणा – वही- 28/30
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