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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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सत्यान्वेषी है, तो उसको जो भी ज्ञान प्राप्त होगा, वह भी सम्यक होगा। इसके विपरीत, जिसका दृष्टिकोण दुराग्रह, दुरभिनिवेश से युक्त है, जिसमें यथार्थ लक्ष्योन्मुखता और आध्यात्मिक-जिज्ञासा का अभाव है, उसका ज्ञान मिथ्याज्ञान है।
जैनदर्शन में मोक्षमार्ग के लिए उपयोगी ज्ञान को ही सम्यग्ज्ञान कहा गया है। जिस ज्ञान से आत्मस्वरूप का बोध नहीं होता, अथवा हेय, ज्ञेय और उपादेय का विवेक नहीं होता, वह ज्ञान मिथ्यारूप होता है एवं मोक्षप्राप्ति के लिए अनुपयोगी होता है।1049 जिस व्यक्ति में ज्ञान और प्रज्ञा होती है, वही निर्वाण के समीप होता है। गीताकार का कथन है कि अज्ञानी, अश्रद्धालु और संशययुक्त व्यक्ति विनाश को प्राप्त होते हैं, 1050 जबकि ज्ञानरूपी नौका का आश्रय लेकर पापी-से-पापी व्यक्ति पापरूपी समुद्र से पार हो जाता है। 1051 ज्ञानाग्नि समस्त कर्मों को भस्म कर देती है। 1052 इस जगत् में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला अन्य कुछ नहीं
है।1053
वस्तुतः, सम्यग्ज्ञान ही सच्चे धर्म और सुख का कारण है। जब तक सम्यग्ज्ञान नहीं होता, तब तक. विकारों का विनाश होकर विचारों का विकास नहीं होता, इसीलिए दशवैकालिकसूत्र में स्पष्ट कहा है कि पहले ज्ञान है, फिर दया अर्थात् चारित्र। 1054 इससे यह स्पष्ट होता है कि सम्यग्ज्ञान का स्थान चारित्र से भी पहले है।
सम्यकचारित्र -
निश्चयदृष्टि से चारित्र का सच्चा अर्थ समभाव या समत्व की उपलब्धि है। जैनदर्शन में चरित्र ही धर्म है- चारित्तं खलु धम्मो। इस धर्म के अहिंसा, संयम और तप- ये तीन भेद हैं। 1056 उत्तराध्ययनसूत्र में
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धम्मपद - 372 गीता-4/40 व्ही -4/36 वही -4/36 व्ही -4/36 पढमं णाम तओ दया, एवं चिट्ठइ सव्वसंजए" -दशवैकालिकसूत्र-4/10 प्रवचनसार, गाथा 7 धम्मो मंगलमुक्किटं अहिंसा संजमो तवो। -दशवैकालिकसूत्र- 1/1
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