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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
कहा जाता है कि श्रीकृष्ण के पास सुदर्शन चक्र था, जिससे सम्पूर्ण शत्रुओं को पराजित करके वे त्रिखण्ड के अधिपति बन गए। यदि आत्मारूपी कृष्ण के भी सम्यग्दर्शनरूपी सुदर्शनचक्र है, तो वह भी कषायरूपी शत्रुओं को पराजित कर एक दिन त्रिलोकीनाथ बन सकता है। कहा गया है कि धर्मरूपी मोती सम्यग्दर्शनरूपी सीप में ही पनपता है ।
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सम्यग्ज्ञान
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रत्नत्रय में दूसरा रत्न सम्यग्ज्ञान है, जो धर्म के स्वरूप को स्पष्ट करता है। सभी आध्यात्मिक - दर्शनों में ज्ञान को आत्मा का मूल गुण माना गया है। ज्ञान के द्वारा ही व्यक्ति अपने हित-अहित, उचित - अनुचित, श्रेय-प्रेय अथवा हेय - ज्ञेय एवं उपादेय का बोध प्राप्त कर सकता है। जैनदर्शन में ज्ञान को मुक्ति का अनन्य साधन माना गया है। ज्ञान अज्ञान एवं मोहजन्य अन्धकार को नष्ट कर सर्वतथ्यों (यथार्थता) को प्रकाशित करता है। सत्य के स्वरूप को समझने का एकमेव साधन ज्ञान ही है । आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं - ज्ञान ही मनुष्य - जीवन का सार है, 1045 लेकिन धर्म के स्वरूप को समझने के लिए एवं मोक्षमार्ग की साधना के लिए समीचीन ज्ञान कौनसा है, इसे जानने के लिए ज्ञान के स्वरूप का संक्षिप्त विवेचन आवश्यक है ।
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जैन-धर्मदर्शन में ज्ञान के दो रूप माने गए हैं - 1. सम्यक्ज्ञान, 2. मिथ्याज्ञान। सम्यक्ज्ञान के लिए जो आधार प्रस्तुत किया गया, वह यह है कि तीर्थंकरों के उपदेशरूप गणधरप्रणीत जैनागम यथार्थज्ञान है और शेष मिथ्याज्ञान है, 1046 किन्तु एकान्ततः ऐसा भी नहीं है। नन्दीसूत्र " और अभिधान राजेन्द्रकोश में कहा है कि एक यथार्थ दृष्टिकोण वाले (सम्यकदृष्टि ) के लिए मिथ्या श्रुत (जैनेतर आगम ग्रन्थ) भी सम्यक् श्रुत है, जबकि एक मिथ्यादृष्टि के लिए सम्यकश्रुत भी मिथ्याश्रुत है। जैनाचार्यों ने यह धारणा प्रस्तुत की थी कि यदि व्यक्ति का दृष्टिकोण शुद्ध है,
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उत्तराध्ययनसूत्र - 32/2
-दर्शनपाहुड, 31
अभिधानराजेन्द्रकोश, खण्ड-7, पृ. 515
नन्दीसूत्र, सूत्र, 41
1) अभिधान राजेन्द्रकोश, खण्ड-7, पृ. 514
2) जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-1, डॉ. सागरमल जैन,
पृ. 72
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