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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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5. आस्तिक्य -
'अस्ति भावं आस्तिक्यम्' – अस्तित्व (सत्ता) में विश्वास आस्तिक्य है। अस्ति-है; शाश्वत रूप से है। जैनदर्शन के अनुसार, नौ तत्त्वों एवं षटद्रव्यों की सत्ता को स्वीकार करने वाला ही आस्तिक्य है।
सम्यग्दर्शन का महत्त्व -
मानव-जीवन के व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक -दोनों क्षेत्रों में सम्यग्दर्शन का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यथार्थ दृष्टिकोण एवं सम्यकश्रद्धान के अभाव में जीवन की आध्यात्मिक-विकासयात्रा असम्भव है। उत्तराध्ययनसूत्र में सम्यग्दर्शन का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए इसे मोक्ष का मूल कारण माना गया है। कहा गया है -"दर्शन अर्थात् अनुभूति के बिना ज्ञान नहीं होता, ज्ञान के बिना चारित्र प्राप्त नहीं होता और चारित्र के बिना मोक्ष (कर्मक्षय) नहीं होता है।"1057 इस संदर्भ में मनुस्मृति में भी कहा गया है -“सम्यग्दृष्टिसम्पन्न व्यक्ति को कर्म का बंध नहीं होता है, लेकिन सम्यग्दर्शन से विहीन व्यक्ति संसार में परिभ्रमण करता रहता है।" 1038 बौद्धदर्शन में भी मिथ्या दृष्टिकोण को संसार का किनारा एवं सम्यक दृष्टिकोण को निर्वाण का किनारा माना गया है। 1039 सम्यग्दर्शन के श्रद्धापरक अर्थ के सन्दर्भ में गीता में भी कहा गया है- 'श्रद्धावाल्लभते ज्ञानम्', अर्थात् श्रद्धावान् ही ज्ञान को प्राप्त करता है। 1040 आध्यात्मयोगी आनन्दघनजी लिखते हैं कि जिस प्रकार राख पर लीपना व्यर्थ है, उसी प्रकार शुद्ध श्रद्धा के बिना समस्त क्रिया व्यर्थ है,141 इसीलिए 'सम्यग्दर्शन' को 'मुक्ति का अधिकार-पत्र' कहा जाता है। 1042
सम्यग्दर्शन जीवन की अमूल्य निधि है। जिसे यह अमूल्य निधि प्राप्त हो जाती है, वह शूद्र भी देवतुल्य है - ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है। 1043
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उत्तराध्ययनसूत्र- 28/30 सम्यकदर्शन सम्पन्नः कर्मभिर्न निबद्धयते, दर्शनेन विहीनस्तु, संसारं प्रतिपद्यते। -मनुस्मृति- 6/74 अंगुत्तरनिकाय - 10/12, उद्धत-जैन बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन गीता - 17/3 आनन्दघन चौबीसी-स्तवन जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, द्विभाग, डॉ.सागरमल जैन, पृ.51 रत्नकरण्ड श्रावकाचार-28
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