________________
452
जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
(रुचि) किया है। वस्तुतः, मन में क्रोध आदि के भाव (वेग) आने पर प्रतिक्रिया नहीं करना ही संवेग (सम्+वेग) है।
संवेग के मोक्षाभिलाषी अर्थ को स्पष्ट करते हुए आचार्य रामचन्द्रसूरि लिखते हैं -"दैवीय-सुखों को भी दुःखरूप मानना (जो यथार्थ में सुखाभास है, किन्तु परिणामतः दुःखस्वरूप है) तथा एकमात्र मोक्ष का सुख ही सच्चा सुख है -ऐसा मानकर एवं मोक्ष के स्वरूप को जानकर उसे प्राप्त करने की तीव्र अभिलाषा रखना ही संवेग है। 1035
3. निर्वेद -
. यह सम्यक्त्व का तीसरा लक्षण है। उत्तराध्ययनसूत्र की टीकाओं में निर्वेद का अर्थ विषयों से विरक्ति है, अर्थात् सांसारिक-प्रवृत्तियों के प्रति उदासीन-भाव निर्वेद है। निर्वेद साधना—मार्ग में अग्रसर होने में अत्यन्त सहायक होता है। इससे निष्काम भावना तथा अनासक्त-दृष्टि का विकास होता है। 'निर्गत वेद यस्मिन् स निर्वेद', व्युत्पत्तिपरक व्याख्या के अनुसार - क्रोध आदि कषायों के वेदन का अभाव निर्वेद है, अर्थात् मन में क्रोध आदि से सम्बन्धित संकल्प-विकल्प का अभाव होना निर्वेद है। निर्वेद के प्रभाव से जीव आरम्भ का परित्याग कर संसार-मार्ग का विच्छेद करता है और मुक्ति को उपलब्ध करता है।1036
4. अनुकम्पा -
'अनुकम्पा' शब्द अनु+कम्पन के योग से बना है; 'अनु' अर्थात् तदनुसार एवं 'कम्पन' अर्थात् अनुभूति। इस प्रकार, दूसरे व्यक्ति की अनुभूति का स्वानुभूति में बदल जाना अनुकम्पा है। दूसरे शब्दों में, किसी प्राणी के दुःख से पीड़ित होने पर उसी के अनुरूप दुःख की अनुभूति का होना अनुकम्पा है। इसे समानुभूति भी कहा जा सकता है। परोपकार की प्रवृत्ति मूलतः अनुकम्पा के सिद्धान्त पर आधारित है। अनुकम्पा से ही 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' का उद्घोष स्फुटित होता है।
1034
1035
1036
उत्तराध्ययनसूत्र टीका (शान्त्याचार्य), पत्र 577 सम्यग्दर्शन, रामचन्द्रसूरि, पृ.-284 1) उत्तराध्ययनसूत्र- 29/3 2) उत्तराध्ययनसूत्र, दार्शनिक अनुशीलन एवं वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उसका महत्व, साध्वी डॉ. विनीत प्रज्ञा, पृ. 310
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org