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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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जाग्रत होती है और यही भावना सम्यग्दर्शन को निर्मल कर मोक्ष-पथ पर अग्रसर करती है।
जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन-प्राप्ति के दो कारण हैं - एक, नैसर्गिक और दूसरा, अधिगमिक'032 | जो दूसरे के उपदेश के बिना स्वयं अपने आप से उत्पन्न होता है, उसे नैसर्गिक-सम्यग्दर्शन कहते हैं तथा गुरु आदि के उपदेश -श्रवण, मनन, अध्ययन या परोपदेश से जो निष्ठा जाग्रत होती है, वह अधिगमिक-सम्यग्दर्शन है।
सम्यग्दर्शन के लक्षण1033 -
जैनदर्शन में सम्यक्त्व के गुण-रूप पांच लक्षण स्वीकार किए हैं। किसी प्राणी में सम्यग्दर्शन है या नहीं, इसकी पहचान के लिए ज्ञानियों ने सम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा व आस्तिक्यरूपी लक्षणों का वर्णन किया है। सम्यग्दर्शन के गुणों (लक्षण) का विवेचन इस प्रकार है -
1. सम - -
सम का अभिप्राय है- समता। सभी प्राणियों को अपने ही समान समझना। 'शम' का अभिप्राय क्रोधादि कषायों का निग्रह करना तथा मिथ्याग्रह, दुराग्रह का शमन है। 'श्रम' यहाँ पुरुषार्थ और परिश्रम -दोनों ही रूपों में वर्णित है। सम्यक्त्वी अपनी आत्मा की उन्नति के लिए किसी अन्य की सहायता की अपेक्षा न करके स्वयं ही पुरुषार्थ करता है और परिश्रम करके मोक्षमार्ग पर अग्रसर होता है।
2. संवेग -
जिससे . कषायों का वेग 'सम' हो जाए, वही संवेग है। उत्तराध्ययनसूत्र 1034 के टीकाकारों ने संवेग का अर्थ मोक्ष की अभिलाषा
1032
1) तन्निसर्गादधिगमाद्वा – तत्त्वार्थसूत्र- 1/3 .:. 2) ज्ञानार्णव - 6/6
3) स्थानांगसूत्र - 2/1/70 4) पंचाध्यायी - 2/658-659
5) अनगारधर्मामृत - 2/47/171 1033 __ शम-संवेग-निर्वेदाऽनुकम्पाऽऽस्तिक्यलक्षणैः।
लक्षणे: पंचभिः सम्यक सम्यक्त्वमुपलक्ष्यते।। - योगशास्त्र- 2/15
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