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________________ 450 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व श्रावक को अरिहंतदेव के प्रति पुण्य-भाव, सुगुरु के प्रति सेवा–भक्ति के परिणाम तथा धर्मतत्त्व के प्रति अनुष्ठान-भाव रखना चाहिए। इस प्रकार, देव, गुरु एवं धर्म में श्रद्धा रखना सम्यक्त्व है। 1024 मोक्षपाहुड, 1025 आवश्यकसूत्र1026, कार्तिकेयानुप्रेक्षा1027, योगशास्त्र1028 आदि में अठारह दोषों से विरहित सुदेव, निर्ग्रन्थ प्रवचन अर्थात् मोक्षमार्ग के उपदेशक सुगुरु तथा हिंसा आदि से रहित सुधर्म हैं, इन सभी में श्रद्धा का होना सम्यग्दर्शन है। संक्षेप में, तत्त्व के दो भेद हैं,1029 एक-जीव और दूसरा-अजीव। जीव का लक्ष्य शिव है, किन्तु उसका बाधक तत्त्व अजीव है। जीव' शिव बनना चाहता है, पर अजीव-तत्त्व जीव में पय-पानीवत् घुल-मिल जाने के कारण जीव अपना शुद्ध स्वरूप पहचान नहीं पाता है। वह अनादि/अनन्तकाल से अपने अशुद्ध रूप को ही शुद्ध रूप समझने की भयंकर भूल कर रहा है, अपने-आपको शुद्ध चैतन्यस्वरूप न मानकर शरीर से, इन्द्रियों से, मन से कर्मोदयजनित मनुष्य-पर्यायों आदि से अभिन्न समझता रहा है, जो मिथ्या धारणा है। इसे ही जैन-दार्शनिकों ने मिथ्यात्व कहा है। 1030 रात्रि के अन्धकार को दूर किए बिना जैसे सहस्त्ररश्मि सूर्य’ उदित नहीं होता, वैसे ही मिथ्यात्वरूपी अन्धकार को नष्ट किए बिना सम्यग्दर्शन उत्पन्न नहीं होता। 1031 जब आत्मा में सम्यग्दर्शन का प्रादुर्भाव होता है, तब वह आत्मा जीव और अजीव का पृथक्त्व समझ लेता है। मैं जड़ नहीं चेतन हूँ, मेरा स्वरूप शुद्ध चेतना है, मुझमें राग, द्वेष आदि की जो विकृति है, वह जड़ के संसर्ग से है, मैं सम्प्रति कर्मों से बद्ध हूँ, किन्तु कर्मों को नष्ट कर एक दिन मैं अवश्य ही मुक्त बनूंगा -इस प्रकार की निष्ठा उसके अन्तर्मानस में 1024 धर्मसंग्रह, प्रथम भार 1025 1026 1027 1028 हिंसा रहित धम्मे अट्ठारहदोसवज्जिए देवे। निग्गंथ पव्वयणे सहृहणं होइ सम्मतं ।। –मोक्षपाहुड, मूल 90 अरिहन्तो मह देवो, जावज्जीवं सुसाहुणो गुरूणो। जिणपण्णतं तत्तं इअ सम्मत्तं मए गहियं ।। - आवश्यकसूत्र कार्तिकेयानुप्रेक्षा, मूल, 317 या देवे देवताबुद्धिगुरौ च गुरूतामतिः । धर्मे च धर्मधीः शुद्धा सम्यक्त्वमिदमुच्यते।। -योगशास्त्र- 2/2 जीवरासी चेव अजीवरासी चेव -स्थानांगसूत्र- 2/4/95 मिथ्या विपरीता दृष्टिर्यस्य स मिथ्यादृष्टिः। -कर्मग्रन्थ टीका-2 अनिर्दूय तमो नैश; यथा नोदयतेऽशुमान्। तथानुद्भिद्य मिथ्यात्वतमो नोदेति दर्शनम्।। -महापुराण-119/9/200 1029 1030 1031 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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