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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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आधारभूत तथ्य को तत्त्व कहते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र 1016 , योगशास्त्र017 और नवतत्त्व-प्रकरण'018 में भी नौ या सात तत्त्वों के अस्तित्व में सद्भावपूर्वक श्रद्धा रखना ही 'सम्यक्त्व' है।
बृहद्रव्यसंग्रह के अनुसार - जीव आदि पदार्थों का श्रद्धान करना सम्यक्त्व है और वही आत्मा का स्वरूप है।1019 आगे, इसी सूत्र की व्याख्या में कहा गया है कि वीतराग सर्वज्ञ श्री जिनेन्द्र द्वारा कहे हुए जो शुद्ध जीव आदि तत्त्व हैं, उनमें चल, मलिन व अवगाढ़ दोषों से रहित जो श्रद्धान है, रुचि है, अथवा, 'जो जिनेन्द्र ने कहा, वही सत्य है'- इस प्रकार की निश्चयरूप बुद्धि का नाम सम्यग्दर्शन है और वह सम्यग्दर्शन अभेदनय से आत्मा का स्वरूप है, अर्थात् आत्मा का परिणाम है। 1020 आचारांगसूत्र में सम्यग्दर्शन शब्द आत्मानुभूति, आत्मसाक्षात्कार, साक्षीभाव आदि अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। 1021 आचार्य कुन्दकुन्द के शब्दों में - व्यवहारनय से जीवादि तत्वों का श्रद्धान करना सम्यक्त्व है, किन्तु निश्चयनय से आत्मा का श्रद्धान ही सम्यक्त्व है। 1022
परवर्तीकाल में जैन साहित्य में प्रायः 'दर्शन' शब्द देव, गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धा और भक्ति के अर्थ में रूढ़ हो गया है। आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार -सुदेव, सुगुरु और सुधर्म में श्रद्धा सम्यक्त्व है। 1023 सम्यक्त्व की यह व्याख्या मुख्यतः गृहस्थ-श्रावक की अपेक्षा से कही गई है, अर्थात्
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1016 तहियाणं तु भावाणं, सम्भावे उवएसणं।
भावेण सद्दहंतस्सए सम्मए तं वियाहिणं ।। -उत्तराध्ययनसूत्र- 28/15
रूचिर्जिनोक्ततत्त्वेषु, सम्यश्रद्धानमुच्यते। -योगशास्त्र- 19 (प्रथम प्रकाश) 1018
जीवाइनवपत्थे, जो जाणइ तस्स होइ सम्मत्तं।
भावेण सद्दहतो, अयाणमाणेवि सम्मत्तं।। - नवतत्त्वप्रकरण, गाथा 51 1019
जीवादीसद्दहणं सम्मत्तं रूवमप्पणो तं तु - बृह्दद्रव्यसंग्रह, गाथा 41 (पूर्वाद्ध) 1020.
जीवादीसद्हणं सम्मत्तं वीतरागसर्वज्ञप्रणीतशुद्धजीवदितत्त्वविषये चलमलिनावगाढ़रहितत्वेन श्रद्धानं रूचिनिश्चयइदमेवेत्थमेवेति निश्चयबुद्धिः सम्यग्दर्शनम्। “रूवमप्पणो तं तु तच्चाभेदनयेन रूपं स्वरूपं तु पुनः, कस्यात्मन आत्मपरिणाम इत्यर्थः। - बृहदद्रव्यसंग्रह,
व्याख्या, तृतीय अधिकार, गाथा 41, पृ. 130 1021
आचारांगसूत्र - 3/2/28, अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खंड-1, पृ. 29 1) जीवादीसद्दहण सम्मतं, जिणवरेहिं पण्णतं। ववहाराणिच्छयदो; अप्पाणं हवइ सम्मत्तं ।। -दर्शनपाहुड, 20
2) सर्वाथसिद्धि / तात्पर्यवृत्ति-155/220/11 1023
या देवे देवताबुद्धि, गुरौ च गुरूतामतिः, धर्मे च धर्मधीः शुद्धा, सम्क्त्व मिदमुच्यते। -योगशास्त्र- 3/2
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