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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
सम्यक+दर्शन -इन दो शब्दों से मिलकर बना है, जिसका सीधा और सरल अर्थ है - सही ढंग से या अच्छी प्रकार से देखना। "वस्तुस्वरूपस्य यः निश्चितिः तदर्शनम, 1071 अर्थात्, तत्त्व अथवा पदार्थ अपने स्वरूप से जैसे हैं, उनको उसी रूप में देखना सम्यग्दर्शन है। राग और द्वेष आँख पर चढ़े रंगीन चश्मे के समान हैं, जो सत्य को विकृत करके प्रस्तुत करते हैं। वस्तुतः, राग-द्वेष और पूर्वाग्रह के घेरे से ऊपर उठकर सत्य का दर्शन करना ही सम्यग्दर्शन है।
जैन-परम्परा की दृष्टि से –(1) तत्त्व के यथार्थ स्वरूप पर श्रद्धा करना, (2) सुदेव, सुगुरु और सुधर्म पर श्रद्धा रखना, (3) आत्मतत्त्व पर श्रद्धा रखना और (4) जिनेश्वर देव के वचनों पर श्रद्धा रखना ही सम्यग्दर्शन है, लेकिन हमें यह समझ लेना चाहिए कि दृष्टि के निर्दोष और निर्विकार होने पर ही सत्य का यथार्थ रूप में दर्शन होगा और उस पर. श्रद्धा या आस्था होगी। सम्यकदर्शन का श्रद्धापरक अर्थ भक्तिमार्ग के प्रभाव से जैनधर्म में आया है। मूल अर्थ तो दृष्टिपरक ही है, लेकिन श्रद्धापरक अर्थ भी साधना के लिए कम महत्त्वपूर्ण नहीं है।
समस्त जगत् के तत्त्वों का यथार्थ श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है,1012 अथवा तत्त्व-रुचि भी सम्यग्दर्शन है। 1013 आप्त, आगम और तत्त्वार्थ-श्रद्धा से सम्यक्त्व की उपलब्धि होती है, 1014 इसलिए अपने-अपने स्वभाव में स्थित तत्त्वार्थ के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं। समयसार की टीका में कहा गया है कि जीवादि जो नौ तत्त्व हैं, भूतार्थनय से उनको जानना एवं मानना ही सम्यग्दर्शन है। 015
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जैनदर्शन, (सम्यक् ज्ञान दर्शन चारित्र के परिप्रेक्ष्य में) डॉ. साध्वी सुभाषा, पृ. 27 1012
तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्। -तत्त्वार्थसूत्र- 1/2 1013
1) मोक्षपाहुड – 38 2) ज्ञानार्णव - 6/5 3) अभिधानराजेन्द्रकोश, खंड-5 पृ. 24, 25
4) अत्तागमतच्चाणं सद्दहणादो हंवइ सम्मत – नियमसार, 5 1014
1) अत्तागमतच्चाणं, जं सद्दहणं सुणिम्मलं होइ।
संकाइदोसरहियं, तं सम्मत्तं मुणेयव्वं ।। - वसुनन्दिश्रावकाचार, गाथा 6 1015 जीवादीनि नवतत्त्वानि भूतार्थेनाभिगतानि सम्यग्दर्शनम्। -समयसार, 13
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