SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 463
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 4. जीवों की रक्षा करना धर्म है 1064 धर्म का चतुर्थ स्वरूप जीवों की रक्षा करना है । भारतीय - चिन्तकों ने और जैनधर्म में अहिंसा का जितनी गहराई से चिन्तन किया है, उतना विश्व के अन्य विचारकों ने नहीं । "अहिंसा परमो धर्मः" - अहिंसा ही परमधर्म है। अहिंसा आत्मा का अवलोकन है, जीवन की पवित्रता है, मन का माधुर्य है, मैत्री का मूलमन्त्र है, स्नेह, सौहार्द्र और सद्भावना का सूत्र है, धर्म - संस्कृति, समाज का प्राण है और साधना का पथ है । 1065 1066 1067 1068 'हिंसा' शब्द हननार्थक 'हिंसि' धातु से बना है। हिंसा का अर्थ हैप्रमत्त योग से दूसरों के प्राणों का अपहरण करना, दुष्प्रयुक्त मन, वचन या काया के योगों से प्राण - व्यपरोपण करना । अहिंसा का अर्थ हैप्राणातिपात से विरति । सूत्रकृतांगसूत्र के अनुसार, ज्ञानी होने का सार यह है कि किसी भी प्राणी की हिंसा न करे। अहिंसा ही समग्र धर्म का सार है, इसे सदैव स्मरण रखना चाहिए ।' आचारांगसूत्र में कहा है- भूत, भविष्य और वर्त्तमान के सभी अर्हत् यह उपदेश करते हैं कि किसी भी प्राण, भूत, जीव और सत्त्व को किसी प्रकार का परिताप, उद्वेग या दुःख नहीं देना चाहिए, न किसी का हनन करना चाहिए - यही शुद्ध, नित्य और शाश्वत धर्म है । समस्त लोक की पीड़ा को जानकर अर्हतों ने इसका प्रतिपादन किया है। वस्तुतः, अहिंसा का मूलाधार जीवन के प्रति सम्मान, समत्वभावना एवं अद्वैत - भावना है। समत्वभाव से सहानुभूति तथा अद्वैतवाद से आत्मीयता उत्पन्न होती है, जो अहिंसा का आधार है। सभी प्राणी जीवित रहना चाहते हैं, कोई मरना नहीं चाहता, अतः निर्ग्रन्थ प्राणवध (हिंसा) का निषेध करते हैं। 1 11070 जैन- विचारणा हिंसा के दो पक्षों से विचार करती है । प्रथम, द्रव्यहिंसा और द्वितीय, भावहिंसा । हिंसा का बाह्य-पक्ष द्रव्यहिंसा है और हिंसा का विचार करना भावहिंसा कहलाता है । यह एक मानसिक अवस्था है, जो प्रमादजन्य है। आचार्य अमृतचन्द्र हिंसा के 1069 457 1064 महाभारत- 11/13 1065 प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोहणं हिंसा । - तत्त्वार्थसूत्र 7/13 1066 मणवयकाएहि जोएहिं दुप्पउत्तेहि जं पाणववरोपणं कज्जइ सा हिंसा । - दशवैकालिक, जिनदासचूर्णि, प्रथम अध्याय अहिंसा नाम पाणतिवायविरती दशवैकालिक, जिनदासचूर्णि, पृ. 15 1067 1068 1069 सूत्रकृतांगसूत्र- 1/4/10 आचारांगसूत्र- 1/4/1/127 दशवैकालिक - 6/11 1070 Jain Education International - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy