________________
442
जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
राष्ट्रधर्म है और जिस आचार-प्रणाली से विश्व का मंगल हो, वह विश्वधर्म है। इसी प्रकार, यह परिभाषा सभी समाजों और वर्गों पर लागू होती है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा94 में कहा गया है -
धम्मो वत्थु सहावो, खमादिभावो य दसविहो धम्मो | रयणत्तयं च धम्मो, जीवाणं रक्खणं धम्मो।। ..
अर्थात्, वस्तु-स्वभाव धर्म है, क्षमादि दशविध धर्म हैं, रत्नत्रय धर्म हैं और जीवों की रक्षा करना धर्म है। यह धर्म की. एक व्यापक परिभाषा है। धर्म की इस परिभाषा की व्याख्या हम अगले पृष्ठों में विस्तृत रूप से
करेंगे।
धर्म का सम्यक् स्वरूप -
'सम्यक' शब्द का अर्थ है – ठीक, सही, यथार्थ या सत्य । जैनदर्शन में धर्म के सम्यक् स्वरूप को स्पष्ट करने वाले अनेक सूत्र और गाथाएं हैं। वे जहां एक ओर धर्म के बाह्य-स्वरूप पर प्रकाश डालती हैं, वहीं वे दूसरी ओर, धर्म की अन्तर्वस्तु को भी स्पष्ट करती हैं।
अज्ञात और अदृश्य शक्तियों के बारे में जानने की लालसा मानव में आदिकाल से ही रही है। पाश्चात्य विद्वानों की कल्पना है कि मानव की इसी रुचि ने धर्म को जन्म दिया, किन्तु यह उचित नहीं है। आदिमयुग से लेकर सभ्य समाजों तक हमें धर्म, धार्मिक-क्रियाकाण्ड और ईश्वर सम्बन्धी विचार देखने को मिलते हैं। भारत जैसे धर्मपरायण देश में तो प्रातःकाल उठने से लेकर रात्रि तक तथा जन्म से मृत्यु तक अनेक धार्मिक-क्रियाएं सम्पन्न की जाती हैं। उन क्रियाओं में, चाहे वे वैयक्तिक हों, सामाजिक या पारिवारिक हों, कहीं-न-कहीं धर्म-भावना निहित होती है। सामान्यतया, मानव की सम्पूर्ण क्रियाओं का केन्द्र धर्म माना गया है
और जीवन का अन्तिम लक्ष्य धर्म को अर्जित कर मोक्ष को प्राप्त करना ही है, किन्तु जैन- चिन्तकों का मानना है कि धर्म ही एक ऐसा पवित्र अनुष्ठान है, जिससे आत्मा की विशुद्धि होती है।995
994 कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा 478 995 एगा धम्मपडिमा. जं से आया पज्जवजाए। -स्थानांगसूत्र-1/1/40
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org