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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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__धर्म के स्वरूप को जानने की जिज्ञासा प्रत्येक मानव में पाई जाती है। धर्म क्या है ? इसका स्वरूप कैसा है ? इन प्रश्नों के आज तक अनेक उत्तर दिए गए हैं, किन्तु जैन-आचार्यों ने धर्म का जो स्वरूप एवं उसके लक्षण बताए हैं, वे विलक्षण हैं, जिनमें से मुख्य चार लक्षणों को स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा96 में संग्रहीत किया गया है, जो धर्म के स्वरूप को स्पष्ट करते हैं।
धम्मो वत्थुसहावो, खमादिभावो य दसविहो धम्मो। रयणत्तयं च धम्मो, जीवाणं रक्खणं धम्मो ।।
अर्थात्, वस्तु का स्वभाव धर्म है। क्षमा आदि भावों की अपेक्षा से वह दस प्रकार का है। रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र) भी धर्म है तथा जीवों की रक्षा करना भी धर्म है।
सामान्यतः, 'धर्म' शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। इस संसार में जो भी पदार्थ हैं, उन सबका अपना-अपना स्वभाव है, जैसे- जल का धर्म है -शीतलता, आग का धर्म है -जलाना। यहाँ धर्म से हमारा तात्पर्य वस्तु के स्वाभाविक-गुणों से होता है, किन्तु जब यह कहा जाता है कि दुःखी एवं पीड़ितजनों की सेवा करना मनुष्य का धर्म है, अथवा गुरु की आज्ञा का पालन करना शिष्य का धर्म है, तो यहाँ धर्म का अर्थ होता हैकर्त्तव्य या दायित्व। इसी प्रकार, जब हम यह कहते हैं कि मेरा धर्म जैन है, या उसका धर्म ईसाई है, तो यहाँ धर्म का मतलब किसी दिव्यसत्ता-सिद्धान्त या साधना-पद्धति के लिए हमारी श्रद्धा, आस्था या विश्वास से है। प्रायः, हम धर्म से यही तीसरा अर्थ लेते हैं, जबकि यह तीसरा अर्थ धर्म का अभिरूढ़ अर्थ है, वास्तविक अर्थ नहीं है। सच्चा धर्म सिर्फ धर्म है, वह न हिन्दू होता है, न जैन, न बौद्ध, न ईसाई, न इस्लाम । हमारा सच्चा धर्म तो वही है, जो हमारा निज स्वभाव है,997 इसीलिए जैन आचार्यों ने 'वस्थु सहावो धम्मो'998 के रूप में धर्म को परिभाषित किया है। प्रत्येक के लिए जो उसका निज-गुण है, स्व-स्वभाव है, वही धर्म है। स्व-स्वभाव से भिन्न जो भी होगा, वह उसके लिए धर्म नहीं, अधर्म ही होगा।
996 कार्तिकेयानुप्रेक्षा- 478 997 धर्म का मर्म, डॉ. सागरमल जैन, पृ. 14 998 भावसंग्रह, गाथा-373
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