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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 990 धर्म है।988 वैशेषिकसूत्र में धर्म का लक्षण बताते हुए कहा गया है - जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस् की सिद्धि होती है, वह धर्म है सिक्ख धर्म के प्रवर्त्तक गुरूनानक ने 'हृदय की पवित्रता' को ही धर्म माना है । 1 ईसाईधर्म क्षमा और दया को धर्म मानता है । ईसा ने सूली पर चढ़ते हुए भी अपने शत्रुओं के प्रति क्षमाशीलता को कायम रखा। उनकी अन्तिम प्रार्थना थी - "भगवान्! इनको क्षमा करना, ये बेचारे नहीं जानते कि ये क्या कर रहे ,992 हैं धर्म की इन अनेक व्याख्याओं के उल्लेख का प्रयोजन यही है कि हम धर्म के व्यापक स्वरूप को, जो विभिन्न धर्मदर्शनों में बताया गया है, उसको हृदयंगम कर सकें । ये व्याख्याएँ स्पष्ट करती हैं कि जीवन को उच्च, पवित्र और दिव्य बनाने वाले जो भी विधि-विधान या क्रियाकलाप हैं, वे सभी धर्म के अन्तर्गत हैं । भारतीय - परम्परा की यह विशेषता है कि उसमें धर्म की किसी एकांगी परिभाषा पर ही बल नहीं दिया गया, वरन् धर्म के विविध पक्षों को उभारने का प्रयास किया गया है। वे कहते हैं कि वेद एवं स्मृति की आज्ञाओं का परिपालन, सदाचार और आत्मवत् व्यवहार धर्म का लक्षण है। वस्तुतः, पाश्चात्य - परम्परा में इन विविध परिभाषाओं का आग्रह देखा जाता है। जैन - परम्परा में कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा और दशवैकालिकसूत्र में प्रदर्शित धर्म की परिभाषाएं धर्म के सभी तथ्यों को स्पष्ट करती हैं। 441 993 दशवैकालिक में धर्म को उत्कृष्ट मंगल कहा है। 'मंगल' शब्द का अर्थ है- पाप या बुराइयों का नाश और सुख एवं कल्याण की प्राप्ति । तात्पर्य यह है कि जो आचार-प्रणालिका हमारे जीवन को पाप की कालिमा से बचाती है; जीवनगत बुराइयों को दूर करती है और जिससे कल्याण का पथ प्रशस्त होता है, वही धर्म है। इस व्यापक परिभाषा से जैनागमप्रतिपादित धर्म सार्वभौम धर्म का दर्जा प्राप्त कर लेता है। जिससे आत्मा का मंगल हो, वह आत्म-धर्म है। जिससे राष्ट्र का मंगल हो, वह 989 वही, पृ. 2669 990 वैशेषिकसूत्र, उद्धृत नीतिशास्त्र का सर्वेक्षण, पृ. 6 991 धर्म-दर्शन, प्रो. रामेश्वर प्रसाद शर्मा, पृ. 414 992 "Father! forgive them for they know not what they do" – Jesus 993 दशवैकालिकसूत्र - 1/1 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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