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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
4. धर्म कर्त्तव्य की विवेचना करता है -
जैन परम्परा में अहिंसा, संयम और तपरूप धर्म को उत्कृष्ट मंगल के रूप में भी परिभाषित किया गया है। 981 इस प्रकार, धर्म को विश्वकल्याणकारक बताया गया है।982 महाभारत में धर्ग की परिभाषा इस रूप में की गई है कि जो प्रजा को धारण करता है, अथवा जिससे समस्त प्रजा (समाज) का धारण या संरक्षण होता है, वहीं धर्म है। 983 गीता में धर्मशास्त्र को कार्याकार्य अथवा कर्त्तव्याकर्त्तव्य की व्यवस्था देने वाला बताया गया है। 984 उपर्युक्त परिभाषाओं की चर्चा डॉ. सागरमल जैन ने अपने शोध-प्रबंध में भी की है।
5. धर्म परम श्रेय की विवेचना करता है -
दशवैकालिकनियुक्ति में धर्म को भाव-मंगल और सिद्धि (श्रेय) का कारण कहा है। आचारांगनियुक्ति में भी धर्म का अंतिम लक्ष्य निर्वाण बताया गया है। उसमें कहा गया है कि लोक का सार धर्म है, धर्म का सार ज्ञान है, ज्ञान का सार संयम (सदाचार) है और संयम का सार निर्वाण है। 985 इस प्रकार, धर्म को परमश्रेय का उद्बोधक माना गया है। कठोपनिषद में भी श्रेय और प्रेय के विवेचन में बताया गया है कि जो श्रेय का चयन करता है, वही विद्वान् है। 986 आचार्य शुभचन्द्र ने धर्म को भौतिक एवं आध्यात्मिक-अभ्युदय का साधक बताया है। 987 जैन-परम्परा में धर्म की एक परिभाषा वस्तु-स्वभाव के रूप में भी की गई है।988 जिससे स्वस्वभाव में अवस्थिति और विभावदशा का परित्याग होता है. वह धर्म है. क्योंकि स्वस्वभाव ही हमारा परमश्रेय हो सकता है और इस रूप में वही धर्म कहा जाता है। धर्म का लक्षण यह भी बताया गया है -जो आत्मा का परिशुद्ध स्वरूप है और जो आदि, मध्य और अन्त-सभी में कल्याणकारक है, वही
981 धम्मो मंगल मुक्किटुं, अहिंसा संजमो तवो। -दशवैकालिकसूत्र- 1/1 982 अबन्धूनामसौ बन्धुरसखीनामसौ सखा।
अनाथानामसौ नाथो, धर्मो विश्वैकवत्सलः ।। -योगशास्त्र- 4/100 983 महाभारत, कर्णपर्व- 69/59 984 गीता- 16/24
आचारांगनियुक्ति, 244
कठोपनिषद्- 2/1/2 987 अमोलसूक्ति, रत्नाकर, पृ. 27
अभिधानराजेन्द्रकोश, खण्ड-4, पृ. 2663
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