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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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हेमचन्द्राचार्य ने कहा है - "दुर्गति में गिरते हुए जीवों को धारण-रक्षण करने के कारण ही उसे धर्म कहते हैं। वह संयम आदि दस प्रकार का है, सर्वज्ञों द्वारा कथित है और मोक्ष के लिए है। 974 परमात्मप्रकाश में कहा है - धर्म जीव को मिथ्यात्व, राग आदि परिणामों से बचाता है और उसे अपने निज, शुद्ध भाव में स्थिर करता है।975 यही भावार्थ महापुराण, चारित्रसार और द्रव्यसंग्रह-टीका78 में भी है, जो धर्म को परिभाषित करते हैं। दार्शनिक ओशो ने महावीर वाणी में कहा है -"जरा और मरण के तेज प्रभाव में बहते हुए जीव के लिए धर्म ही एकमात्र द्वीप, प्रतिष्ठा, गति और उत्तम शरण है।"979 योगसार में धर्म को परिभाषित करते हुए साफ-साफ शब्दों में घोषणा की है - "सिर्फ पढ़ लेने से 'धर्म' धर्म नहीं हो जाता, पुस्तक और पिच्छी धारण कर लेने से भी धर्म नहीं होता, किसी मठ में रहने से भी धर्म नहीं होता, केश-लोच करने को भी धर्म नहीं कहा जा सकता, बल्कि 'धर्म' वह है, जिसमें राग-द्वेष को छोड़कर अपनी आत्मा में ही वास किया जाता है। तीर्थंकरों ने निज-आत्मा में रहने को धर्म कहा है, क्योंकि वह (निजात्मवास) पंचम गति कहे जाने वाले 'मोक्ष' तक पहुंचाता है।980
ख) धर्मो नीचैः पदादुच्चैः पदे धरति धार्मिकम्। - तत्राजवज्जवो नीचैः पदमुच्चैस्तदव्यय ।। - पंचाध्यायी, उत्तरार्द्ध, 715 ग) महापुराण- 2/37 क) दुर्गतिप्रपतत्प्राणिधारणाद धर्म उच्चते।
संयमादिर्दशविध सर्वज्ञाक्तो विमुक्तये।। योगशास्त्र-2/11 ख) ज्ञानार्णव - 2/157
ग) राजवार्तिक - 9/2/3 . 975 भावविसुद्धणु अप्पणउ धम्मु भणे विणु लेहु ।
चउगइ दुक्खंइं जो धरइ जीव पंडतउ एहु।।-परमात्मप्रकाश-2/68 976 महापुराण-47/302
चारित्र सार, 3 978 द्रव्यसंग्रह टीका, 35 979 जरामरणवेगेणं, वुज्झमाणाण पाणिणं ।
धम्मो दीवो पइट्ठा य, गई सरणमुत्तमं ।। -ओशो, महावीर वाणी, भाग.1, पृ. 348 ' धम्मणु पढियई होइ धम्मु ण पोत्था पिच्छियहं ।
धम्मण मढिय-पएसि धम्मु ण मत्था लुचियइं।। राय रोस वे परिहरिवि जो अप्पाण वसेइ। सो धम्म वि जिण उत्तिमउ जो पंचमगइ णेइ।। -योगसार-46-48
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