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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
2. धर्म चारित्र का परिचायक है -
जैन-परम्परा में धर्म की दूसरी परिभाषा चारित्र के रूप में दी गई है। स्थानांगसूत्र की टीका में आचार्य अभयदेव ने धर्म का लक्षण चरित्र माना है। प्रवचनसार में आचार्य कुन्दकुन्द ने भी चारित्र को ही धर्म का लक्षण माना है। आचारांगनियुक्ति के अनुसार - शास्त्र एवं प्रवचन का सार आचरण है। वैदिक-परम्परा में मनु ने आचार को परमधर्म कहकर धर्म का लक्षण चारित्र या आचरण बताया है। आचार को स्पष्ट करते हुए मनु ने यह भी बताया है कि आचरण का वास्तविक अर्थ रागद्वेष से रहित व्यवहार है। वे कहते हैं कि रागद्वेष से रहित सज्जन विद्वानों द्वारा जो आचरण किया जाता है और जिसे हमारी अन्तरात्मा ठीक समझती है, वही आचरण धर्म है।70
3. जो दुर्गति और दुःख से बचाए, वह धर्म –
गीतार्थ ज्ञानियों ने धर्म की परिभाषा करते हुए कहा है –'दुर्गतो प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्म:71, अर्थात्, दुर्गति में गिरते हुए जीवों को जिससे शुभ स्थान में धारण किया जाता है, उसे धर्म कहते हैं। प्रवचनसार की तात्पर्याख्यावृत्ति के कर्ता के अनुसार72 - धर्म वह है, जो मिथ्यात्व, राग आदि से हमेशा संसरण कर रहे भवसंसार से प्राणियों को ऊपर उठाता है और विकाररहित शुद्ध चैतन्यभाव में उन्हें धर देता है।" इस दुनिया में जो भी जीव आए, वर्तमान में हैं और भविष्य में आएंगे, वे सब इस दुनिया में किसी-न-किसी प्रकार से दुःखी रहते रहे हैं और रहेंगे। जीवों को इन सांसारिक-दुःखों से छुटकारा पाने के लिए जो इष्ट स्थान तक पहुंचा दे, धर दे, वह धर्म है।973
966 स्थानांगसूत्र टीका- 4/3/320
प्रवचनसार- 1/7 आचारांगनियुक्ति- 16/17 मनुस्मृति- 2/108
वही- 2/1 971 दशवैकालिकसूत्र सूत्र व्याख्या में 1/1 972 मिथ्यात्वरागादिसंसरणरूपेण भावसंसारे प्राणिनमुद्धृत्य निर्विकारशुद्धचैतन्ये धरतीति धर्मः। - प्रवचनसार ___ -तात्पर्यवृत्ति- 7/9 973 क) इष्टे स्थाने धत्ते इति धर्मः । -सर्वार्थसिद्धि- 9/2
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