________________
जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
प्रो. फ्लिन्ट Prof. Flint } ने धर्म की इस प्रकार की परिभाषा दी है, जो धर्म के सभी आवश्यक पहलुओं पर प्रकाश डालती है। हीगेल, ई. बी. टेलर, मैक्समूलर ने जो धर्म की परिभाषाएं दी हैं, उनमें धर्म के एकमात्र ज्ञानात्मक - पक्ष को ही स्पष्ट किया गयां है। कांट ने अपनी परिभाषा में ज्ञान के साथ-साथ क्रियात्मक पहलू पर भी ध्यान दिया है, लेकिन भावनात्मक पहलू की उपेक्षा कर दी है। दार्शनिक गैलवे, ब्राइटमैन, माटिन्यू और प्रो. फ्लिन्ट ने धर्म की जो परिभाषाएं दी हैं, उनमें विश्वास (श्रद्धा), विचार (ज्ञान) और आचार - तीनों का समावेश कर लिया गया है, इसलिए यह परिभाषा निर्दोष एवं संतोषप्रद है । पाश्चात्य - परम्परा में धर्म को विविध रूप से परिभाषित किया गया है, साथ ही भारतीय - परम्परा में भी धर्म को अनेक रूपों में परिभाषित किया गया है। उनमें से कुछ प्रमुख दृष्टिकोण इस प्रकार हैं -
1. धर्म नियमों या आज्ञाओं का पालन है।
-
437
जैन - परम्परा में धर्म आज्ञापालन के रूप में विवेचित है। आचारांगसूत्र में महावीर ने स्पष्ट कहा है कि मेरी आज्ञाओं के पालन में धर्म है। 961 मीमांसादर्शन में धर्म का लक्षण आदेश या आज्ञा माना गया है। उसके अनुसार, वेदों की आज्ञा का पालन ही धर्म है। 962 जैन - परम्परा में लौकिक-नियमों या सामाजिक-मर्यादाओं को भी धर्म कहा गया है। स्थानांगसूत्र में ग्रामधर्म, नगरधर्म, संघधर्म आदि के सन्दर्भ में धर्म को सामाजिक विधि-विधानों के पालन के रूप में ही देखा गया है। उपर्युक्त परिभाषाओं की चर्चा डॉ. सागरमल जैन ने अपने शोध-प्रबंध में भी की है । इस्लाम धर्म का अर्थ आज्ञापालन और आत्म-समर्पण करना है । इस्लाम-धर्म की यह सबसे बड़ी शिक्षा (परिभाषा) है कि अल्लाह की आज्ञा का पालन करें तथा उसके सामने सभी प्रकार से आत्मसमर्पण करें 1965
964
961 आणाए मामगं धम्मं - आचारांगसूत्र- 1/6/2/185
962
मीमांसादर्शन- 1/1/2
963 दसविहे धम्मे पण्णत्ते, तं जहा - गामधम्मे, नयरधम्मे, रट्ठधम्मे... । - स्थानांगसूत्र - 1/101/7.60 जैन, बौद्ध और गीता के आचारणदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-1, डॉ. सागरमल जैन,
964
पृ. 9
965 विश्वधर्मदर्शन की समस्याएँ, डॉ. बी. एन. सिंह, पृ. 228
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org