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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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| 3 | यह अभावयुक्त होता है। 3 | इसमें अभाव का अभाव होता है,
अर्थात् यह वैभव (संपन्नता) युक्त
होता है। | 4 | यह जड़ता लाता है। 4 | यह चिन्मय बनाता है। 5 | यह प्रमाद उत्पन्न करता है। 5 | यह जागरूक बनाता है।
इसके फलस्वरूप दुःख 6। यह सदा ही सुखमय रहता है। मिलता है। यह बाधा (अंतराय) युक्त 7 | इसमें बाधा उपस्थित नहीं होती, होता है।
यह सदा बना रहता है। इसका अंत अवश्यंभावी है। इसका अंत होना आवश्यक नहीं
है, यह अक्षय है, अनंत है। 9 यह श्रम से मिलता है। | यह विश्राम से मिलता है। | 10 | यह मोहमय होता है। 10 | यह निर्विकार एवं प्रीतिमय होता
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11 | इसकी तृप्ति कभी नहीं 11 इससे सदा तृप्ति रहती है।
होती। यह इन्द्रियजगत् के स्तर 12 | यह आंतरिक-स्तर पर उपलब्ध पर, अर्थात् बाह्य-स्तर पर होता है।
प्राप्त होता है। | 13 | यह संकीर्ण होता है। 13 | यह अनंत रसयुक्त होता है।
| कामनापूर्ति में इस सुख का 14 | कामनानिवृत्ति व त्याग से इस भास मात्र होता है। सुख का अनुभव होता है, यह | वास्तविक सुख कामनापूर्ति वास्तविक सुख होता है। | में नहीं होता। 15 | यह निजस्वरूप की स्मृति 15 | यह निजस्वरूप की स्मृति जाग्रत - भुलाता है।
करता है। 16 | यह वक्रता, कठोरता, क्रूरता, 16 | यह भव का अंत करता है।
क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेष आदि दोषों को बढ़ाता है। | इसके भोगी को बार-बार | 17 | यह अमृतरूप है, मृत्युरहित
मरना पड़ता है, अतः यह | | | करता है।
विषतुल्य है। | 18. | यह निजस्वरूप से विमुख 18| इससे निजस्वरूप में रमणता
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