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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
भोजन, पानी और धन की उपलब्धता उसे सुखी बना देगी, लेकिन आनन्द की प्राप्ति आकांक्षा की समाप्ति पर ही होती है ।
4. जो नहीं चाहने पर भी आ जाता है, वह दुःख है, जो चाहते हुए भी नहीं रहता, वह सुख है, जो सदाकाल बना रहता है, वह आनन्द है ।
5. सुख संग्रह में है, आनन्द त्याग में है।
6. सुख दुःख कों प्रशम (दबा ) कर देता है। आनन्द दुःख का क्षय ( खत्म कर देता है ।
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7. विषय - सुख प्रतिक्षण क्षीण होकर नीरसता में परिणत होता है । इसके साथ अभाव, अशान्ति, पराधीनता, चिन्ता, जड़ता, भय आदि अगणित दुःख लगे रहते हैं, परन्तु आनन्द जब प्रकट होता है, तो वह उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है और अन्ततः मुक्ति के सोपान तक पहुंचा देता है। वस्तुतः सम्यक् आनन्द, वही है, जो आत्मा के स्वरूप को प्रकट करने में सहायक बने ।
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कन्हैयालाल लोढ़ा ने अपनी पुस्तक 'दुखः रहित सुख में सुख को विषय - सुख और आनन्द को आध्यात्मिक सुख कहा है। उन्होंने विषय - सुख और आध्यात्मिक - सुख की तुलना की है, जिसमें कुछ तथ्य इस प्रकार हैं
विषय - सुख (सुख)
1. विषयसुख क्षीण होता है। 1 भोग्य सामग्री व भोक्ता - दोनों के बने रहने पर भी प्रतिक्षण क्षीण होता है और क्षीण होते-होते अंत में समाप्त हो जाता है ।
2 विषयभोग के सुख का अंत 2 नीरसता में होता है।
दुःखरहित सुख, कन्हैयालाल लोढ़ा, पृ. 53
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आध्यात्मिक - सुख (आनन्द) आध्यात्मिक सुख अक्षय होता है। विषय- विकार के त्याग से जितना सुख प्रकट हुआ है, उस अवस्था के बने रहते उस सुख में क्षीणता नहीं आती ।
इसमें सदा सरसता बनी रहती है ।
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