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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व सुख ही आनन्द है । आत्मा आनंद का अनंत सागर है, सुख का अक्षय भण्डार है तथा निराकुलता व शान्ति का असीम कोष है 1 लेकिन, आज परिस्थितियाँ इससे एकदम विपरीत हैं, जो जीवन आनंद का कोष है, वह आज दुःख / पीड़ा का महासागर बन गया है, क्योंकि मनुष्य अभाव में जी रहा है। जो उसके पास है, वह उसका आनंद नहीं उठाता और जो नहीं है, उसके पीछे हमेशा भागता रहता है, जो अनुपलब्ध है, उसका दुःख सदा भोगता है। गीता शंकरभाष्य में कहा है - " विषय - सेवन की तृष्णा (लालसा) से इन्द्रियों का निवृत्त हो जाना ही वास्तविक सुख है ।" 946 बौद्धदर्शन के उदान में कहा गया है- छोटे-बड़े सभी प्राणियों के प्रति संयम और मित्रभाव का होना ही वास्तविक आनंद है। 7 जो इस लोक में कामसुख है और जो परलोक में स्वर्ग के सुख हैंवे सब तृष्णा के क्षय से होने वाले आध्यात्मिक - सुख की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं हैं। 948 अतः, मानव अपने आपको यदि निग्रह करे, तभी वह आनन्द को प्राप्त कर सकता है। सुख और आनन्द में अंतर 1. वस्तुतः सुख व्यक्ति को भौतिक पदार्थो से प्राप्त होता है, पर आनन्द व्यक्ति की आत्मानुभूति है। जब चित्त शान्त, प्रशान्त और प्रसन्न होता है, तो आनन्द का झरना हृदय से प्रस्फुटित होता है । 946 947 2. सुख भौतिक है और आनन्द आध्यात्मिक । भौतिक सुख बाह्यवस्तुओं के माध्यम से प्राप्त किया जाता है, वह पराश्रित है । सुन्दर स्त्री एवं भौतिक सुख - साधनों से व्यक्ति बाह्य - रूप से सुखी हो सकता है, परन्तु वास्तविक सुख आत्मिक - आनन्द है, जो कि मात्र अनुभव का विषय है । इन्द्रियाणां विषयसेवातृष्णातो निवृत्तिः या तत् सुखम् । अब्यापज्जं सुखं लोकं प्राणभूतेसु संयमो । यं च कामसुखं लोके, यंचिदं दिवियं सुखं । तण्हक्खयसुखस्तेते, कलं नाग्घन्ति सोलसिं । । 948 3. सुख सहजता से प्राप्त किया जा सकता है, जैसे कोई भूख के कारण, प्यास के कारण, अथवा धन के अभाव से दुःखी है, तो Jain Education International गीता (शंकरभाष्य ) - 2/63 429 उदान- 2/1 वही - 2 /2 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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