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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
उसकी मात्रा का अतिक्रमण करने से। 944 इस प्रकार, जैनदर्शन में भी अरस्तु के समान मात्रा के मानक का विचार उपलब्ध है।
इस प्रकार, स्पष्ट है कि जैन, बौद्ध, वैदिक और पाश्चात्य-दर्शनों में सुखवाद को अलग-अलग प्रकार से बताया गया है, पर मूल में देखें, तो मन की शान्ति, चित्त की प्रसन्नता और सुविधापूर्ण जीवन ही सुखवाद का समर्थन करता है। सुखवाद की समीक्षा करते हुए डॉ. सागरमल जैन ने लिखा है कि सुखवाद की जैनदर्शन के अनुसार प्रमुख आलोचना यह है कि वह सुख को ही एकमात्र साध्य मानता है, जबकि चेतना के अन्य पक्ष भी समान रूप से नैतिक-साध्य बनने की अपेक्षा रखते हैं। सुखवाद चेतना के मात्र अनुभूत्यात्मक-पक्ष को स्वीकार करता है और उसके बौद्धिक-पक्ष की अवहेलना करता है, यही उसका एकांगीपन है।
जैन-दार्शनिक सुखवाद को स्वीकार करते हुए भी बौद्धिक एवं ज्ञानात्मक-पक्ष की अवहेलना नहीं करते और इस रूप में वे सुखवादी विचारणा के तत्त्वों को स्वीकार करते हुए भी आलोचना के पात्र नहीं बनते
हैं। 945
सुख और आनन्द का अन्तर -
पराधीनता व अभाव दुःख है, भौतिक-पदार्थों की प्राप्ति सुख है तथा विकारों से विमुक्ति ही आनन्द है। जहाँ विकार नहीं, वहाँ आनन्द-ही-आनन्द है। आनन्द कभी आकाश से नहीं गिरता और न ही पाताल से प्रकट होता है। वह तो आत्मा से प्रादुर्भूत सहज उपलब्धि है। सुख का आधार सत्ता नहीं, सत्य है। नीत्से ने सुख का आधार सत्ता को माना। फ्रायड की दृष्टि में सुख का मूल कारण 'काम' है। मार्क्स का अभिमत है कि 'अर्थ' के अभाव में सत्ता और काम -दोनों का कोई अस्तित्व नहीं है। इस संदर्भ में भगवान् महावीर ने कहा है - सुख न सत्ता में है, न काम में और न अर्थ में। सुख तो आत्मा में है, अपने-आप में है। जैसे फूल की सुगन्ध फूल में है, शकर की मिठास शकर में है, दीपक का प्रकाश दीपक में है, वैसे ही आत्मा का सुख आत्मा में है और आत्मा का
944 आत्मानुशासन - 28 949 जैन, बौद्ध तथा गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-1, डॉ. सागरमल जैन, पृ. 128
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