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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व एक विशिष्ट अर्थ में ही नैतिक जीवन का साध्य माना गया है। अतः कहा जा सकता है कि जैन- विचारणा और सामान्य रूप से अन्य सभी भारतीयविचारणाओं में नैतिक - साध्य के रूप में सुख को स्वीकार किया गया है। पाश्चात्य - सुखवाद की अवधारणा पाश्चात्य - विचारकों में सुखवाद के सर्वप्रथम प्रवर्तक एरिस्टिप्यस थे । एरिस्टियस के अनुसार, जीवन का चरम लक्ष्य भोग ही है। ज्ञान और सामाजिक-संस्कृति की उपादेयता उनके द्वारा भोग-प्राप्ति पर ही अवलम्बित है। वे कहते हैं कि जीवन को शान्तिमय और सुखमय बनाने के लिए दर्शन के अध्ययन पर अत्यधिक बल दिया जाना चाहिए।" उनके अनुसार, दर्शन मानव-कल्याण का उपाय है, साधन है | 942 - डॉ. सागरमल जैन ने अपने शोध-प्रबन्ध में कहा है कि पाश्चात्य-विचारकों में अरस्तु का नाम अग्रगण्य है। अरस्तु के नैतिक-दर्शन में शुभ का प्रतिमान 'स्वर्णिम माध्यम (Golden Mean) माना गया है। अरस्तु के अनुसार, प्रत्येक गुण अपनी मध्यावस्था में ही नैतिक-शुभ होता है। उसने सद्गुण और दुर्गुण की कसौटी के रूप में इसी 'स्वर्णिम माध्य' को स्वीकार किया है। सद्मार्ग मध्यममार्ग है, अर्थात् सांसारिक सुखों में अत्यधिक भोग-विलास और विरक्ति के रूप में तपमार्ग या देह-दंण्डन –दोनों अनुचित हैं। संयम दोनों की मध्यावस्था के रूप में सद्गुण है। 943 427 जैनदर्शन में अरस्तु के इस मात्रात्मक मानक दृष्टिकोण का समर्थन आचार्य गुणभद्र के आत्मानुशासन नामक ग्रन्थ में भी मिलता है । वे लिखते हैं कि सुख का अनुभव करना बुरा नहीं है, लेकिन उसके पीछे जो वासना है, वह बुरी है। सुख भोग से कोई पाप नहीं होता, पाप होता हैसुख - भोग की वासना के कारण, क्योंकि यह वासना सम्यक् दृष्टिकोण की घातक है । वासना से सम्यक्त्व का नाश होता है, जबकि सम्यक्त्व सुख का हेतु है । वासना मात्रातिक्रमण की ओर ले जाती है और यही मात्रातिक्रमण पाप है। आचार्य इसे और अधिक स्पष्ट करते हुए मिठाई का उदाहरण देते हैं। वे कहते हैं कि 'अजीर्ण' मिष्ठान भोजन से नहीं होता, वह होता है, 942 नीतिशास्त्र, डॉ. एस. एन.एल. श्रीवास्तव, पृ. 37-39 943 जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-1, डॉ. सागरमल जैन, पृ. 128 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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