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________________ 432 करता है। यह रति-अरतिमय होने से अविरति उत्पन्न करता है। नवीन भोग की प्रवृत्ति को जन्म देता है। 20 इसके आदि व अन्त में दुःख होता है 19 24 21 यह सुख - दुःख का भय पैदा 21 करता है। 22 इसे बलपूर्वक रोक नहीं सकते, इसे सुरक्षित बनाए रख नहीं सकते, जैसेजवानी, बचपन, निरोगता आदि सुख 23 इसमें राग रहता है । यह क्षितिज के समान है, जो केवल भासित होता है, परंतु प्राप्त कभी नहीं होता है, अस्तित्वहीन होता है । 25 यह पुण्यों का क्षय करने वाला है । 26 इससे व्यक्तित्व और समाज - राष्ट्र दूषित होता है। है 19 1 20 Jain Education International 22 23 24 25 26 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व आती है। यह रति-अरतिरहित विरतिमय होता है । इसके आदि, मध्य एवं अंत में सुख रहता है यह दुःख के भय से रहित करता है । अभय बनाता है। -000 इसे सुरक्षित बनाए रखने में बल व श्रम की आवश्यकता ही नहीं होती। वस्तुतः, आध्यात्मिक - सुख और वैषयिक - सुख का संक्षिप्त में विवेचन किया है। निश्चयात्मक रूप से कह सकते हैं कि संसार में कोई भी सुख ऐसा नहीं है, जिसका कारण विषयसुख न हो । समस्त दुःखों का मूल कारण विषयसुख ही है, परन्तु आनंद आत्मिक सुख है एवं वास्तविक सुख यह विरागता या वीतरागता से होता है। यह सत्, सत्तावान, अस्तित्ववाला है । यह पापों का क्षय करने वाला है । इससे व्यक्तित्व, सुंदर समाज - राष्ट्र का निर्माण होता है वसुंदरता आती है I For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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