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करता है।
यह रति-अरतिमय होने से अविरति उत्पन्न करता है। नवीन भोग की प्रवृत्ति को जन्म देता है।
20 इसके आदि व अन्त में दुःख होता है
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21 यह सुख - दुःख का भय पैदा 21 करता है।
22 इसे बलपूर्वक रोक नहीं सकते, इसे सुरक्षित बनाए रख नहीं सकते, जैसेजवानी, बचपन, निरोगता आदि सुख 23 इसमें राग रहता है ।
यह क्षितिज के समान है, जो केवल भासित होता है, परंतु प्राप्त कभी नहीं होता है, अस्तित्वहीन होता है ।
25 यह पुण्यों का क्षय करने वाला है । 26 इससे व्यक्तित्व और समाज - राष्ट्र दूषित होता है।
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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
आती है।
यह रति-अरतिरहित विरतिमय
होता है ।
इसके आदि, मध्य एवं अंत में सुख रहता है
यह दुःख के भय से रहित करता है । अभय बनाता है।
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इसे सुरक्षित बनाए रखने में बल व श्रम की आवश्यकता ही नहीं होती।
वस्तुतः, आध्यात्मिक - सुख और वैषयिक - सुख का संक्षिप्त में विवेचन किया है। निश्चयात्मक रूप से कह सकते हैं कि संसार में कोई भी सुख ऐसा नहीं है, जिसका कारण विषयसुख न हो । समस्त दुःखों का मूल कारण विषयसुख ही है, परन्तु आनंद आत्मिक सुख है एवं वास्तविक सुख
यह विरागता या वीतरागता से होता है।
यह सत्, सत्तावान, अस्तित्ववाला
है ।
यह पापों का क्षय करने वाला
है ।
इससे
व्यक्तित्व,
सुंदर समाज - राष्ट्र का निर्माण होता है वसुंदरता आती है I
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