________________
जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
421
उत्तराध्ययनसूत्र में दुःख के कारण अविद्या, मोह, कामना, आसक्ति एवं राग-द्वेष आदि हैं। आचार्य पूज्यपाद लिखते हैं- इस जड़ शरीर में आत्मबुद्धि का होना ही संसार के दुःखों का कारण है, इसलिए शरीर में आत्मत्व की मिथ्या कल्पना को छोड़कर बाह्यविषयों में इन्द्रियों को रोकता हुआ अन्तरंग में प्रवेश करे।" 917 आचार्य गुणभद्र लिखते हैं -"सर्वप्रथम शरीर उत्पन्न होता है, इस शरीर से दुष्ट इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं। वे अपने विषयों को चाहती हैं और वे विषय मान-हानि, परिश्रम, भय, पाप एवं दुर्गति को देने वाले हैं। इस प्रकार से, समस्त अनर्थों की परम्परा का मूल कारण शरीर ही है। 918 आचार्य शुभचन्द्र लिखते हैं- "इस संसार से जो-जो भी दुःख जीवों को सहने पड़ते हैं, वे सब इस शरीर के ग्रहण के कारण ही सहने पड़ते हैं। इस शरीर से निवृत्त होने पर फिर कोई भी दुःख नहीं है। 919 बौद्धग्रंथ महासतिपट्टान में तृष्णा को ही दुःख का कारण माना गया है।920 उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट कहा गया है कि तृष्णा से पराजित व्यक्ति के माया-मृषा और लोभ बढ़ते हैं, जिससे वह दुःख से मुक्ति नहीं पा सकता।
दुःख की प्रक्रिया का क्रम निम्न है - जहाँ आसक्ति है, वहाँ राग है, जहाँ राग है, वहाँ कर्म है, जहाँ कर्म है, वहाँ बन्धन है और बन्धन स्वयं दुःख है। वस्तुतः, दुःख का मूल कारण ममत्व, राग-भाव या आसक्ति है। यह राग या आसक्ति तृष्णाजन्य है और तृष्णा मोह-जन्य है। मोह ही अज्ञान है, यद्यपि अज्ञान (मोह) और ममत्व में कौन प्रथम है- यह कहना कठिन है। इन दोनों में पहले मुर्गी या अण्डे के समान किसी की भी पूर्वापरता स्थापित करना असंभव है।921
918
917 मूलं संसारदुःखस्य देह एवात्मधीस्ततः। __त्यक्त्वैनां प्रविशेदन्तर्बहिरव्यापृतेन्द्रियः ।। -समाधिशतक, श्लोक-15 978 आदौ तनोर्जननमत्र हतेन्द्रियाणि काड,क्षन्ति तानि विषयाविषयाश्च मान
हानिप्रयासभयपाप कुयोनिदाः स्युर्मूलं ततस्तनुरनर्थपरं पराणाम् ।।-आत्मानुशासन, श्लो.195 919 भवोद्भवानि दुःखानि यानि यानीह देहिभिः ।
सह्यन्ते तानि तान्युच्चैर्वपुरादाय केवलम्।। -ज्ञानार्णव, अधिकार-7, दोहक 11 महासतिपट्टान, उत्तराध्ययनसूत्र- 32/6,7,8 उद्धृत- उत्तराध्ययनसूत्र दार्शनिक अनुशीलन एवं वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उसका महत्व- साध्वी डॉ. विनीतप्रज्ञा
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org