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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
की लालसा से मुक्त होते हैं, ऐसे व्यक्ति विरले ही होते हैं। इनका लक्ष्य मोक्षाभिमुखी होता है। प्राणीमात्र का जितना भी प्रयास है, जितना भी पुरुषार्थ वह करता है, उसकी दो ही दिशाएं हैं- काम अथवा मोक्ष । कामनापूर्ति पतन का मार्ग है और कामना आदि से मुक्ति पाने का प्रयास उन्नति का मार्ग है, विशुद्धि का मार्ग है, सिद्धि का मार्ग है, मोक्ष का मार्ग है और शाश्वत सुख का मार्ग है, इसलिए सुख को व्यवहार के प्रेरक के रूप में व्याख्यायित किया गया है।
दुःख व्यवहार के निवर्तक के रूप में
वस्तुतः, ज्ञानियों ने दुःख को मुक्ति का कारण माना है। क्योंकि दुःख से निवृत्ति होने पर ही सुख की प्राप्ति होती है, इसलिए दुःख को व्यवहार के निवर्तक के रूप में माना गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में जन्म, जरा, रोग और मृत्यु को दुःखरूप माना है और संपूर्ण संसार को ही दुःखमय कहा है। पंचसूत्र के प्रथम अध्याय में कहा गया है- यह संसार, जन्म, जरा, मरण, संयोग, वियोग, रोग, शोक आदि दुःखस्वरूप हैं। परिणाम में भी जन्म-मरणादि दुःख उत्पन्न करने वाला है और दुःख की परम्परा का जनक है, अर्थात् इसके आगे भी भवभ्रमण एवं दुःखों का प्रवाह बना ही रहता है। दुःख के निवर्त्तन के लिए सर्वप्रथम दुःख की उत्पत्ति के कारणों को समझकर ही दुःख से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है।914
दुःख का कारण -
दुःख का मूल कारण क्या है ? इसका उद्गम स्थल कौनसा है ? इन प्रश्नों को ज्ञानियों ने अनेक प्रकार से वर्णित किया है। आचारांगसूत्र में सभी दुःखों का मूल स्रोत- “आरंभ-हिंसाजन्य प्रवृत्ति है। प्रमादी व्यक्ति कषायों के वश होकर आरम्भ-हिंसा करता है और परिणामस्वरूप अशुभ कर्मों का बंध करके नरक, तिर्यंच आदि दुर्गतियों में नाना प्रकार के दुःखों को भोगता है तथा जन्म, जरा और मरण को प्राप्त करता रहता है।"975 सूत्रकृतांगसूत्र में दुःख का कारण संसार में किए दुष्कृत-पाप हैं।
913. ....... दुक्खरूवे, दुक्खफले, दुक्खाणुबंधे। – पंचसूत्र, गाथा-1/2 974 समुप्पायमजाणंता, कहं नायंति संवरं ? – सूत्रकृतांगसूत्र -1/1/3/10 975 आरंभजं दुक्खमिणांति णच्चा, माई पमाई पुण- एइ गब्यं.....। आचारांगसूत्र. प्रथमश्रुतस्कंध
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