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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
औपनिषदिक-ऋषियों ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया है। वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि जो अल्प है, अपूर्ण है, वह सुख नहीं है।908 वास्तविक सुख आत्मपूर्णता में है और जब तक व्यक्ति में इच्छाएं और आकांक्षाएं हैं, तब तक आत्मिक-आनन्द या आत्मपूर्णता सम्भव नहीं है। सुख व्यवहार के प्रेरक के रूप में और दुःख व्यवहार के निवर्तक के रूप में
सभी परिस्थितियां सुख और दुःख से युक्त होती हैं, फिर भी सुख को व्यवहार के प्रेरक के रूप में और दुःख को व्यवहार के निवर्तक के रूप में स्वीकार किया गया है। वस्तुतः, यह सनातन सत्य है कि सभी व्यक्तियों
और प्राणियों को सुख प्रिय है और दुःख अप्रिय है। 'संसार के प्रत्येक प्राणधारी का एकमात्र लक्ष्य है- सुख। सभी प्राणी, जीव, भूत एवं सत्त्व सुख-साता चाहते हैं, दुःख उनको अप्रिय है। 909 यदि गहराई से विचार करें, तो सुख कर्मबंधन का कारण है और दुःख मुक्ति का। कर्मग्रंथ के अनुसार, पुण्य के उदय से व्यक्ति भौतिक सुख को प्राप्त करता है और उस सुख को भोगता है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा है 910 --"यदि अन्य निमित्त से सुख मानते हैं, तो भ्रम है। जिस वस्तु को सुख का कारण मानते हैं, वह ही वस्तु कालान्तर में (कुछ समय बाद) दुःख का कारण हो जाती है।" भौतिक सुख-सुविधाओं में व्यस्त होकर व्यक्ति प्रमादी बन जाता है और अपने पुण्य को समाप्त करता रहता है। प्रमाद के कारण नए कर्मों का बंधन करता चला जाता है। इसके विपरीत, जो व्यक्ति दुःखी है, वह सदा जाग्रत अवस्था में रहता है, अपने कार्य के प्रति सजग रहता है और दुःख से मुक्त होने के लिए प्रयास करता है। इस प्रकार, दुःख व्यक्ति को ऊपर उठाता है और उत्थान की ओर ले जाता है। कहते हैं -प्रभु का नाम भी दुःख के क्षणों में अधिक लिया जाता है। कबीर ने भी कहा है -
दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय । जो सुख में सुमिरन करे, दुःख आवे न कोय ।।
908 उपनिषद् - 7/13/1 - (छन्दोग्योपनिषद्, पृ. 785} 909 सव्वे पाणा, सव्वे जीवा, सव्वे भूआ, सव्वे सत्ता ..... सुहसाया, दुक्खपडिकूला। 910 कात्तिकेयानुप्रेक्षा, संसारानुप्रेक्षा, गाथा 61
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