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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
"नरक-गति के जीव अत्यन्त दुःख और वेदना को सहन करते हैं, इसलिए मरने के बाद सदा तिर्यंच और मनुष्य-गति में ही उनका जन्म होता है। इसके विपरीत, देवगति के जीव सुख और भोग में मस्त रहते हैं, इसलिए मरने के बाद उनका जन्म भी तिर्यंच और मनुष्य-गति में होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि नारक के जीव दुःख को सहन करने में अपना उत्थान कर लेते हैं और देवतागण सुखभोग के कारण अपना पतन कर लेते हैं।"
सुख और सुखाभास -दोनों व्यक्ति के व्यवहार के प्रेरक बनते हैं। व्यक्ति के सभी कार्यों का लक्ष्य सुख को प्राप्त करना है। चाहे वह साधु हो या गृहस्थ, राजा हो या रंक, मनुष्य हो या पशु, सैनिक हो या साहूकार - सभी के व्यवहार का प्रेरक मात्र सुख को प्राप्त करना है। सुख प्राप्त हो, सुख की अनुभूति हो, इसीलिए वे कुछ करते भी हैं।
साधु और संन्यासी अपनी साधना आत्मिक-सुख को प्राप्त करने के लिए करते हैं। गृहस्थ अपने परिवार को सुखी रखने के लिए -रोटी, कपड़ा और मकान के साथ-साथ अन्य आवश्यक वस्तुओं की पूर्ति के लिए प्रयास करता है। राजा राज्य की खुशहाली के लिए और प्रजा को सुखी
और प्रसन्न रखने के लिए प्रयास करता है। रंक अपने जीवनोपयोगी वस्तुओं की प्राप्ति में अपने-आपको सुखी समझता है। आचारांगसूत्र में कहा है -"सभी जीवों को प्राण प्यारे हैं, मरना कोई नहीं चाहता, सभी सुख को प्राप्त करना चाहते हैं, इसीलिए पक्षीजगत् के प्राणी भी जीवन को सुरक्षित रखने के लिए घोंसला बनाते हैं और प्रतिकूल परिस्थितियों में भी सुखपूर्वक रहते हैं। सैनिक देश को खुशहाल और समृद्ध बनाने के लिए दिन-रात सरहदों पर तैनात रहते हैं, ताकि देश सुखी व सुरक्षित रह सके। साहूकार-व्यापारीगणों का उद्देश्य उत्तम वस्तुओं के विनिमय द्वारा जनसामान्य को लाभान्वित करना है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि संसार के लगभग सभी कार्य सुख और प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए किए जाते हैं। न्यायशास्त्र में यह उक्ति प्रसिद्ध है- "बिना उद्देश्य के मूर्ख व्यक्ति भी किसी कार्य में प्रवृत्ति नहीं करता। उसी प्रकार, यह कहने में भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि व्यक्ति का मुख्य उद्देश्य सुख प्राप्त करना ही है। बिना सुख प्राप्ति के लिए कोई व्यक्ति प्रयास नहीं करता। पुनः, यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि सुख कैसा हो? क्षणिक या सदाकालीन, शाश्वत, क्योंकि सुख की धारणा
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