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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
होता है। सर्दी, गर्मी, वृक्ष, पर्वत, नदियां आदि के द्वारा जो दुःख होता है, वह भी आधिभौतिक - दुःख है ।
3. आधिदैविक - दुःख देव, यक्ष, राक्षस, भूत, प्रेत एवं ग्रह आदि के आवेश के कारण एवं दुष्ट ग्रह आदि के दुष्ट प्रभाव से होने वाला दुःख आधिदैविक-दुःख कहलाता "आधिदैविकं शीतोष्णवातवर्षीसन्यवश्या यावेशनिमित्तम् ।
है ।
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मूलतः ये ही त्रिविध दुःख हैं तथा प्रतिकूल और वेदनीय होने से तीनों ही तिरस्कार करने योग्य हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा हैं जन्म दुःखरूप है, जरावस्था दुःखरूप है, रोग और मरण भी दुःखरूप है। वस्तुतः तो, यह समूचा संसार ही दुःखमय है; क्योंकि संसार में जन्म, जरा और मृत्यु लगे हुए हैं, जिससे प्राणी बार-बार पीड़ित होता है। 904
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उत्तराध्ययनसूत्र में चारों गतियों, अर्थात् नरक, तिर्यंच, मनुष्य एवं देव को दुःखरूप ही माना गया है, 905 क्योंकि सभी में मरण का दुःख लगा हुआ है। इन दैहिक - दुःखों के अतिरिक्त मानसिक - दुःख भी है; जिनका उल्लेख उत्तराध्ययनसूत्र में मिलता है। वस्तुतः दैहिक - दुःखों का कारण भी मानसिक - दुःख हैं, क्योंकि जैनाचार्यो की दृष्टि में सुख एवं दुःख - दोनों ही वस्तुगत {Objective } न होकर मनोगत विषयगत {Subjective} होते हैं। वस्तुएं तो उन सुख या दुःख के भावों की निमित्त मात्र हैं। अनेक बार यह देखा जाता है कि एक ही वस्तु दो भिन्न मानसिक स्थितियों में कभी सुखरूप होती हैं और कभी दुःखरूप । सुख और दुःख की अनुभूति में मन की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मानी गई है। वस्तुतः, जब तक चित्त आसक्त है, इच्छाओं और आकांक्षाओं से जुड़ा हुआ है, तब तक दुःखों से निवृत्ति सम्भव नहीं है । इच्छा और आकांक्षा, जो मनोजन्य है, वही यथार्थ दुःख है, क्योंकि उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि जहाँ इच्छा या आकांक्षा है, वहां अपूर्णता है और जहाँ अपूर्णता है, वहाँ दुःख है | 907
903 सांख्यकारिका, डॉ. रविकान्त मणि, पृ. 62
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उत्तराध्ययन सूत्र
वही – 19/10
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उत्तराध्ययन- 19/45
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