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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
शारीरिक । अचानक बिजली आदि गिरने से, अथवा अचानक कोई दुर्घटना आदि से जो दुःख प्राप्त होता है, उसे 'आगन्तुक दुःख' कहते हैं। प्रियजनों के दुर्व्यवहार आदि से तथा इष्ट वस्तु की प्राप्ति न होने के कारण जो दुःख प्राप्त होता है, उसे 'मानसिक दुःख' कहते हैं। जीव के निज स्वभाव से उत्पन्न होने वाले दुःख को ‘स्वाभाविक दुःख' कहते हैं। जैसे किसी का स्वभाव क्रोधी, चिड़चिड़ा या लड़ाकू हो आदि, इससे भी व्यक्ति दुःखी होता है। जिसका शरीर मोटा हो, छोटा हो, नाटा हो, पतला हो, काला हो, अधिक लम्बा हो या शारीरिक-बीमारियों से ग्रस्त हो- ये सब दुःख शारीरिक-दुःख हैं।
स्वामी कार्तिकेय दुःख के पाँच भेद बताते हुए लिखते हैं -
असुरोदरीयि दुःखं सारीरं माणसं तहा विविहं । खित्तुब्मवं च तित्वं अण्णोण्णकयं च पंचविहं ।।901
अर्थात्, पहला असुरकुमारों के द्वारा नारक जीवों को दिया जाने वाला दुःख, दूसरा शारीरिक-दुःख, तीसरा मानसिक-दुःख, चौथा क्षेत्र से उत्पन्न होने वाला दुःख और पांचवाँ परस्पर दिया जाने वाला दुःख ।
सांख्यकारिका में दुःख के तीन प्रकार बताए हैं - आध्यात्मिक, आधिभौतिक एवं आधिदैविक।
___ 1. आध्यात्मिक-दुःख - व्यक्ति के आन्तरिक, शारीरिक और मानसिक -कारणों से अभिव्यक्त या उत्पन्न होने वाले दुःखों को आध्यात्मिक-दुःख कहा जाता है। आध्यात्मिक-दुःख दो प्रकार के होते हैंशारीरिक और मानसिक। वात, पित्त और कफ की विषमता आदि से उत्पन्न होने वाला दुःख मानसिक-दुःख है, जैसे -प्रियजन के वियोगादि से उत्पन्न दुःख।
2. आधिभौतिक-दुःख - आधिभौतिक-दुःख वह है, जो विभिन्न प्राणियों, जैसे- मनुष्य, पशु, सर्प, खटमल, मच्छर आदि के द्वारा उत्पन्न
901 कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा -35 02 दुःखत्रयाभिघातात् - सांख्यकारिका -1
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