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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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सुख का अभाव ही दुःख है। अन्तकरण या मन में उद्भूत होने वाले विभिन्न भावों में सुख और दुःख के भाव ही प्रमुख हैं। सुख अनुकूल-वेदनीय होता है, अर्थात् इसकी अनुभूति अनुकूल प्रतीत होती है। दुःख प्रतिकूल-वेदनीय होता है, अर्थात् इसकी अनुभूति प्रतिकूल प्रतीत होती है। दूसरे शब्दों में, सुख अच्छा लगता है और दुःख बुरा लगता है। वांछित या प्रिय के प्रति किसी रूप से सम्बद्धता का भाव सुखात्मक, सुखरूप या सुखद होता है और अप्रिय के प्रति सम्बद्धता का भाव दुःखात्मक, दुःखरूप या दुःखद होता है।
सामान्य अर्थ में सुख-दुःख सापेक्ष शब्द हैं, एक विकल्पात्मक-स्थिति है। दुःख के विपरीत जो है, उसकी अनुभूति सुख है, या सुख दुःख का अभाव है। जैनदर्शन 'निर्वाण' में जिस अनन्त सौख्य की कल्पना करता है, वह निर्विकल्प सुख है।
सुख के यथार्थ स्वरूप को समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि जैन-विचारकों की दृष्टि में 'सुख' शब्द का क्या अर्थ अभिप्रेत है। वस्तुतः, जैनागमों की भाषा प्राकृत है। प्राकृत में 'सुह' शब्द के संस्कृत भाषा में 'सुख' और शुभ -ऐसे दो रूप बनते हैं। जैनागमों में सुह शब्द विभिन्न स्थलों पर भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। जैनाचार्यों ने 'सुख' दस प्रकार के कहे हैं _898
1. आरोग्यसुख, 2. दीर्घायुष्यसुख, 3. सम्पत्तिसुख, 4. कामसुख, 5. भोगसुख, 6. सन्तोषसुख, 7. अस्तित्वसुख, 8. शुभभोगसुख, 9. निष्क्रमणसुख और 10. अनाबाधसुख।
सम्पत्ति या अर्थ गार्हस्थिक-जीवन के लिए आवश्यक है और सांसारिक-सुखों के लिए कारणभूत होने से उसे 'सुख' कहा गया है।999
सांसारिसम्पत्ति या आप
दुःख के भेदों को बताते हुए आचार्य कुन्दकुन्द लिखते हैं -'आगंतुक मानसिकं सहजं सारीरियं चत्तारि दुक्खाई। 900 अर्थात्, दुःख चार प्रकार का होता है - आगन्तुक, मानसिक, स्वाभाविक तथा
897 बृहत्कल्पभाष्य- 57/7 898 सूत्रकृतांग, 737
अभिधानराजेन्द्रकोश, खण्ड-7, पृ. 1018 00 भावपाहुड, गाथा-11
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