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________________ 412 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व दुःख का लक्षण बताते हुए आचार्य पूज्यपाद लिखते हैं 'सदसेद्धेद्योदयेऽन्तरड्.गहेतौ सति बाह्यद्रव्यादिपरिपाकनिमित्तवशादुत्पद्यमानः प्रीतिपरितापरूपः परिणामः सुखदुःखमित्याख्यायते ।893 अर्थात्, “सातावेदनीय और असातावेदनीय के उदयरूप अन्तरंग हेतु के रहते हुए बाह्यद्रव्यादि के परिपाक के निमित्त से जो प्रीति और परितापरूप परिणाम उत्पन्न होते हैं, वे क्रमशः सुख और दुःख कहे जाते हैं।' दूसरे शब्दों में, पीड़ा-रूप आत्मा का परिणाम दुःख है और इसके विपरीत सुख है। . वीरसेनाचार्य लिखते हैं –'अणित्थसमागमो इगोत्थवियो च दुक्खं नाम । 894 अर्थात्, अनिष्ट अर्थ के समागम और इष्ट अर्थ के वियोग का नाम दुःख है और विषय-सेवन की तृष्णा (लालसा) से इन्द्रियों का निवृत्त हो जाना ही वास्तविक सुख है।995 सुख-दुःख के भेद - इस संसार में सुख-दुःख के आधार पर प्रवृत्ति एवं निवृत्ति सर्वत्र दिखाई देती है। वर्तमान समय में सुख की परिभाषा के रूप में सामान्यतः व्यक्ति भौतिक-सामग्री के भोग-उपभोग की सुविधा को सुख मानता है तथा भौतिक-सामग्री के अभाव या अनुपलब्धि को दुःख मानता है। वास्तव में सुख क्या है ? इस प्रश्न का सबसे संक्षिप्त और सरल उत्तर यही है कि वह सब सुख है, जिसमें मन की आकुलता, व्याकुलता, चाह-चिन्ता, आशा-अभिलाषा व अभाव मिटे तथा मन निर्मलता शान्ति, समभाव और आनन्द से भर जाए। सुख का उपाय है- सद्भाव की जिन्दगी जीना, जो है, उसका आनंद लेना। जितना प्राप्त है, उतने में संतोष रखना ही सुख है। आचारांग में कहा है- का अरई के आणंदे ?896 अर्थात्, "ज्ञानी के लिए क्या दुःख, क्या सुख? कुछ भी नहीं, अर्थात् ज्ञानी उसे ही कहा गया है, जो संतोषी हो। जो संतोषी है, वही सुखी है।" 893 सर्वाथसिद्धि- 5/20 894 सर्वाथसिद्धि- 6/11 गीता, शंकर भाष्य - 2/66 का अरई के आणंदे ? - आचारांगसूत्र- 1-3-3 895 896 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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