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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
संसार में वीतरागता ही सुख है।983 जो पराधीन है, वह सब दुःखद है और जो स्वाधीन है, वह सब सुख है।884 विष्णुपुराण में कहा है -सुख-दुःख वस्तुतः मन के ही विकार हैं।985 सुख के भीतर दुःख और दुःख के भीतर सुख सर्वदा वर्तमान रहता है, ये दोनों ही जल और कीचड़ के समान परस्पर मिले हुए रहते हैं। ००० दूसरों ने जिसे सख कहा है, आर्यों ने उसे दुःख कहा है। आर्यों ने जिसे दुःख कहा है, दूसरों ने उसे सुख कहा है। दुःखी सुख की इच्छा करता है, सुखी और अधिक सुख चाहता है, किन्तु सांसारिक-दुःख-सुख में उपेक्षाभाव रखना ही वस्तुतः सुख है।988
__ उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि सुख-दुःख संज्ञा व्यक्ति की अनुभूति- मात्र है। जब व्यक्ति विकारों और विकृतियों से युक्त होता है, तो वह दुःखी होता है, व्याकुल होता है और जब ये विकृतियाँ और विकार समाप्त हो जाते हैं, तो सुख का साम्राज्य स्थापित हो जाता है। सुख सब चाहते हैं और इसकी तलाश भी सब करते हैं, परन्तु सुख की तलाश में अधिकतर मिलता है-दुःख, क्योंकि तलाश ही दुःख है। जहाँ तलाश है, चाह है, कामना है, वहीं दुःख है।
जब हमारी तलाश, चाह, कामना, इच्छा, आकांक्षा, आशा की पूर्ति होती है, तो हम कुछ देर के लिए 'सुखी' महसूस करते हैं, परन्तु तत्काल ही दुःखी भी महसूस करते हैं, क्योंकि एक इच्छा की पूर्ति होते ही अनगिनत नई इच्छाओं का जन्म हो जाता है। इच्छाओं को आकाश के समान अनन्त कहा गया है। जितनी इच्छाओं की पूर्ति होगी, नई इच्छाएं द्विगुणित एवं त्रिगुणित रूप से बढ़ती जाएंगी और व्यक्ति अधिक दुःखी होता जाएगा।
883 सुखा विरागता लोके – सुत्तपिटक, उदान- 2/1
सव्वं परवसं दुक्खं, सव्वं इस्सरियं सुखं । - वही- 2/9
मनसः परिणामोऽयं सुखदुःखादिलक्षणाः । - विष्णुपुराण - 2/6/47 886 सुखमध्ये स्थितं दुखं दुःखमध्ये स्थितं सुखम् ।
द्वयमन्योऽन्यसंयुक्त प्रोच्यते जलपंकवत् ।। - आध्यात्मरामायण, अयोध्याकाण्ड-1/23 887 अप्पियेहि सम्पयोगो दुक्खं,
पियेहि वियोगो दक्ख। - संयत्तनिकाय -54/2/1 888 दुक्खी सुखं पत्थयति, सुखी भिय्योपि इच्छति।
उपेक्खा पन सन्तत्ता, सुखमिच्चेव भासिता।। - विसुद्धिमग्ग- 1/238 887 इच्छा हु आगाससमा अणंतिया। - उत्तराध्ययनसूत्र- 9/48
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