________________
जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
सुख-संज्ञा और दुःख - संज्ञा
(Instinct of Pleasure & Pain)
संज्ञा के षोडषविध वर्गीकरण में सुख-संज्ञा और दुःख - संज्ञा का क्रम ग्यारहवां और बारहवाँ है । सातावेदनीय कर्म के उदय से होने वाली सुखद अनुभूति सुखसंज्ञा है और असातावेदनीय कर्म के उदय से होने वाली दुःखद अनुभूति दुःखसंज्ञा है । 879 आधुनिक मनोविज्ञान में यह भी बताया है कि सुख सदैव अनुकूल इसलिए होता है कि उसका जीवनी-शक्ति को बनाए रखने की दृष्टि से मूल्य है और दुःख प्रतिकूल होता है, क्योंकि वह जीवनी-शक्ति का ह्रास करता है। यही सुख - दुःख का नियम समस्त व्यवहार का चालक है। जैन - दार्शनिक भी प्राणीय - व्यवहार के चालक के रूप में इसी सुख - दुःख के नियम को स्वीकार करते हैं । अनुकूल के प्रति आकर्षण और प्रतिकूल के प्रति विकर्षण -यह प्राणीय-स्वभाव है। आचारांगसूत्र में कहा गया है - "सभी प्राणियों को सुख प्रिय है, अनुकूल है और दुःख अप्रिय है, प्रतिकूल है । " प्राणी सुख प्राप्त करना चाहते हैं और दुःख से बचना चाहते हैं ।" उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है - "संसार में जन्म का दुःख है, जरा, रोग और मृत्यु का दुःख है, चारों ओर दुःख - ही - दुःख है, अतएव वहाँ प्राणी निरंतर दुःख ही पाते रहते हैं । प्रवचनसार में आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है"जो सुख इन्द्रियों से प्राप्त होता है, वह पराश्रित, बाधासहित, विच्छिन्न, बंध का कारण तथा विषम होने से वस्तुतः सुख नहीं, दुःख ही है | 882
880
881
879
अध्याय - 11
इसका आशय यह है कि जैनदर्शन भौतिक एवं ऐन्द्रिक - सुखों को सुख - रूप नहीं मानता है, क्योंकि वे क्षणिक् एवं वियोग - धर्मा हैं । वस्तुतः,
प्रवचन - सारोद्धार, द्वार 146, साध्वी हेमप्रभाश्री, पृ. 925
880 सव्वे पाणा पिआउया, सुहसाया दुक्खपडिकूला । आचारांगसूत्र - 1/2/3
881 जम्म दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य ।
उत्तराध्ययनसूत्र - 19/16
882
अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसन्ति जंतुणो ।। - सपरं वाधासहियं, विविच्छण्णं बंधकारणं विसमं । जं इन्दियहि लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव तहा ।।
Jain Education International
409
प्रवचनसार - 1/16
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org