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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
श्वेतांबर-परम्परा में ओघनियुक्ति नामक ग्रंथ लिखा गया है। इसमें मुख्य रूप से साधु-जीवन के आचारों का प्रतिपादन है।
इसमें वर्णित विषय इस प्रकार हैं -1. प्रतिलेखन, 2. पिंडग्रहण, 3. उपधि- परिमाण, 4. अनायतन-वर्जन, 5. प्रतिसेवन, 6. आलोचन, 7. विशुद्धि। ओघनियुक्ति इन सात विषयों का विस्तृत विवेचन है। इससे यह स्पष्ट है कि मुनि-जीवन के क्या करणीय हैं और क्या अकरणीय हैं और इसके साथ-साथ विस्तार से चर्चा करते हुए यह बताया गया है कि प्रतिलेखन आदि किन-किन नियमों के अनुसार करना चाहिए, साथ ही यह भी बताया गया है कि साधु-साध्वी को कौन-कौनसी सामग्री रखना चाहिए, या वह कितने परिमाण में होना चाहिए। अनायतन-वर्जन में इस बात की चर्चा की गई है कि किन-किन स्थानों पर ठहरना चाहिए। इस प्रकार, किन-किन नियमों का पालन करना चाहिए और किन-किन की आलोचना करना चाहिए, इसकी भी विशेष चर्चा है। आभोगमार्गणा के अंतर्गत यह भी चर्चा की है कि साधु-साध्वी के लिए क्या-क्या बातें निषिद्ध हैं। इस प्रकार, ओघ-संज्ञा में संज्ञा शब्द वासना या सामान्य प्रवृत्ति का वाचक न होकर विशेष प्रवृत्ति का वाचक है, इसलिए ओघनियुक्ति में यही बताया गया है कि साधु-साध्वी को अपनी सामान्य प्रवृत्ति किस प्रकार करना चाहिए। उसके लिए क्या निषिद्ध हैं -इसकी चर्चा के साथ-साथ इसमें यह भी बताया गया है कि जो करणीय है, उसे कैसे किया जाता है ? इस प्रकार, ओघ-संज्ञा का अर्थ सामान्य प्रवृत्ति न होकर विवेकयुक्त प्रवृत्ति माना जाना चाहिए। यशोविजयजी ने 'अध्यात्मसार में ओघसंज्ञा का अर्थ ज्ञान और विवेक किया है। इस प्रकार, ओघ-संज्ञा वस्तुतः विवेकयुक्त आचरण का ही प्रतिपादन करती है।
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1.पडिलेहणं, 2. च पिंड, 3. उवहिपमाणं, 4. अणाययणवज्जं, 5 पडिसेवण, 6. मालोअण, 7. जह य विसोही सुविहआणं।। - ओघनियुक्ति-2, गाथा-2 अध्यात्माभ्यासकालेऽपि क्रिया काप्येवमस्ति हि, शुभौधसंज्ञानुगतं ज्ञानमप्यस्ति किंचन। - अध्यात्मसार, अध्याय 2, गाथा 28
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