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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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चक्रवर्ती भरत बाह्य-दृष्टि से आरम्भ-समारम्भ से युक्त संसार-रसिक दृष्टिगोचर होते थे, लेकिन आत्म-साक्षी से निर्लिप्त पूर्ण योगीश्वर थे। किसी ने ठीक ही कहा है -"भरतजी मन में ही वैरागी, जबकि प्रसन्नचंद्र राजर्षि बाह्यदृष्टि से घोर तपस्वी, आरम्भ-समारम्भरहित, मोक्षमार्ग के पथिक थे, लेकिन आत्म-साक्षी से युद्धप्रिय बाह्य-भावों में लिप्त थे। श्री 'महानिशीथ सूत्र में कहा गया है -
धम्मो अप्पसक्खिओ।
धर्म आत्म-साक्षिक है। यदि हम आत्मसाक्षी से धार्मिक-वृत्ति के हैं, तो फिर लोक-व्यवहार से क्या मतलब ?
लोकसंज्ञोझिवः साधुः,परब्रह्मसमाधिमान्। सुखमास्ते गतद्रोहममतामत्सरज्वरः ।।8।।
लोकसंज्ञा से रहित, शुद्धात्म-स्वरूप में लीन तथा जिसका द्रोह, ममता और गुणदोषरूपी ज्वर उतर गया है, नष्ट हो गया है - ऐसा साधु सुख में (आनन्द में) रहता है। .
उपर्युक्त अष्टक की विवेचना का उद्देश्य यह है कि लोकसंज्ञा पर साधक विजय किस प्रकार से करे। वस्तुतः, लोकरंजनार्थ लोक-प्रशंसा प्राप्त करने हेतु लोकरुचि का अनुसरण किया जाता है, जिसे लोकसंज्ञा कहते हैं, जो मुनि और साधक-जन के लिए निषिद्ध है। साधक को सदा स्मरण रखना चाहिए कि द्रोह, ममता और मत्सर - ये पतन में गिराने वाली गहरी खाईयां हैं, लोग भले ही उनमें मस्त बनें, पर साधक का उनका शिकार नहीं बनना है। कीचड़ में, गंदे पानी के प्रवाह में सूअर लोटता है, हंस नहीं। मुनि राजहंस के समान है, अतः मुनि को लोक-संज्ञा का परित्याग श्रेयस्कर बताया है।
ओघ-संज्ञा पर विजय -
ओघ-संज्ञा वस्तुतः आचार और व्यवहार के सामान्य निर्देश से संबंधित हैं। उन निर्देशों का पालन करना ही ओघ-संज्ञा पर विजय प्राप्त करना है। ओघ-संज्ञा पर विजय प्राप्त करने के उपायों की चर्चा करते हुए
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