________________
406
जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
श्रेयोऽर्थिनो हि भूयांसो लोके लोकोत्तरे न च । स्तोका हि रत्नवणिजः स्तोकाश्च स्वात्मसाधका ||5||
वास्तव में देखा जाए, तो लोकमार्ग और लोकोत्तरमार्ग में मोक्षार्थियों की संख्या नगण्य ही है, क्योंकि जैसे रत्न की परख करने वाले जौहरी बहुत कम होते हैं, वैसे ही, आत्मोन्नति हेतु प्रयत्न करने वालों की संख्या भी न्यून ही होती है।
मोक्ष के 'अर्थी, अर्थात् सर्व कर्मक्षय के इच्छुक । आत्मा की परम विशुद्ध अवस्था की प्राप्ति के अभिलाषी इस संसार में न्यून ही होते हैं, -नहींवत्, जिनकी गणना अंगुली पर की जा सकती है, उसी प्रकार रत्न की परख करने वाले जौहरी और आत्मसिद्धि के साधक भी दुनिया में अल्प
हैं ।
नीचैर्गमनदर्शनैः ।
लोक-संज्ञाहता हन्त शंसयति स्वसत्यांगमर्मघातमहाव्यथाम् ।। 6 ।।
खेद का विषय है कि लोकसंज्ञा से व्याकुल नतमस्तक होकर धीमी (मन्थर) गति से चलते हुए अपने सत्य - व्रतरूप अंग में हुए मर्म प्रहार की महावेदना को प्रकट करते हैं ।
उपर्युक्त श्लोक का तात्पर्य, मुनि लोकसंज्ञा के वशीभूत होकर अपने लक्ष्य से न भटके, दिखावे और प्रदर्शनरूपी धर्म का त्याग करे, सत्यधर्म और सम्यक्धर्म का अनुसरण जब करेगा, तो साधक का मस्तक सदा ऊँचा और गति सदा तीव्र रहेगी ।
आत्मसाक्षिकसद्धर्मसिद्धौ किं लोकयात्रया ।
तत्र प्रसन्नचन्द्रश्च भरतश्च निदर्शने ।। 7 ।।
अर्थात्, आत्मा के साक्षीभावरूप धर्म ही सत्धर्म है, इसलिए इसकी सिद्धि में लोगों के सामने दिखावा करने का क्या प्रयोजन है, अर्थात् ऐसा करने से कोई लाभ नहीं है। इस प्रसंग में प्रसन्नचंद्र राजर्षि और सम्राट भरत के उदाहरण यथोचित हैं ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org