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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
सद्धर्म का फल लोक - प्रशंसा नहीं है, बल्कि आत्मा को परमात्मा बनाना
है।
लोक-संज्ञामहानद्यामनुस्त्रोतोऽनुगा न के । प्रतिस्त्रोतोऽनुगस्त्वेको राजहंसो महामुनिः ||3||
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लोक-संज्ञारूपी महानदी के प्रवाह के अनुयायी ( प्रवाह की दिशा में बहने वाले) कौन नहीं होते ? अर्थात् अनेक होते हैं, किन्तु विपरीत प्रवाह के अनुयायी ( प्रवाह के विपरीत तैरने वाले ) राजहंस जैसे मात्र मुनिश्वर ही होते हैं।
लोक-संज्ञा रूपी नदी के प्रवाह में बहना, प्रवास करना कोई बड़ी बात नहीं है । खाना, पीना, ओढ़ना, पहनना, विकथाएं करना, परिग्रह इकट्ठा करना, भोगोपभोग का आनन्द लूटना, गगनचुम्बी भवन-निर्माण करना, तन को साफ - सुथरा रखना, सजाना-संवारना, वस्त्राभूषण धारण करना आदि समस्त क्रियाएं सहज स्वाभाविक हैं। इनमें कोई विशेषता नहीं और न ही आश्चर्य करने जैसी बात है। मुनि को चाहिए कि वह इन आदर्श - पद्धति, परम्परा और लोकसंज्ञा के रीति-रिवाज से दूर रहे ।
लोकमालम्ब्य कर्त्तव्यं कृतं बहुभिरेव चेत् ।
तथा मिथ्यादशां धर्मो, न त्याज्यः स्यात् कदाचन ।। 4 ।।
यदि लोकावलम्बन के आधार से बहुसंख्य मनुष्यों द्वारा की जाने वाली क्रिया करने योग्य हो, तो फिर मिथ्यादृष्टियों का धर्म कदापि त्याग करने योग्य नहीं होगा । (क्योंकि संसार में मिथ्यादृष्टि ही अधिक हैं, सम्यकदृष्टि अत्यल्प हैं ।)
वस्तुतः, जो दुर्गति में जाते जीवों का बचा न सके, वह धर्म कैसा? आत्मा पर रहे कर्मों के बंधनों को छिन्न-भिन्न न कर सके, उसे धर्म कैसे कहा जाए ? भगवान् महावीर के समय भी गोशालक का अपना अनुयायी - वर्ग बहुत बड़ा था। उससे क्या गोशालक का मत स्वीकार्य हो सकता है ? वास्तव में, 'बहुमत से जो आचरण किया जाए, उसका ही आचरण करना चाहिए - यह मान्यता अज्ञानमूलक है, इसलिए लोकसंज्ञा के अनुसरण का भगवान् ने निषेध किया है। सिर्फ उसी बात का अनुसरण करना श्रेयस्कर है, जिससे आत्महित और लोकहित - दोनों संभव हों ।
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