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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
आचारांगसूत्र875 में कहा गया है कि मुनि को लोक-संज्ञा का सर्वदा त्याग करना चाहिए। उसी बात का समर्थन करते हुए उपाध्याय श्री यशोविजयजी द्वारा विरचित ज्ञानसार 876 में अष्टक के माध्यम से लोक-संज्ञा को त्याज्य बताया है। लोक-संज्ञा पर विजय प्राप्त करने के लिए निम्न संकेत दिए हैं।
प्राप्तः षष्ठं गुणस्थानं भवदुर्गाद्रिल, घनम् । लोक – संज्ञारतो न स्यान्मुनिर्लोकोत्तरस्थितिः ||1||
संसार की विषम पर्वतमालाओं को लांघने जैसा छठवां गुणस्थान प्राप्त लोकोत्तर स्थित मुनि लोकसंज्ञा में रत नहीं होता।
उपर्युक्त श्लोक में कहा गया है कि मुनि का मार्ग लोक-मार्ग नहीं है, लोकोत्तर-मार्ग है। लोकमार्ग और लोकोत्तर मार्ग में जमीन-आसमान का अंतर है। लोकमार्ग मिथ्या धारणाओं पर चलता है, जबकि लोकोत्तर-मार्ग केवलज्ञानी वीतराग भगवंत द्वारा निर्देशित निर्भय मार्ग है, अतः मुनि को लोकोत्तर-मार्ग का परित्याग कर लौकिक-मार्ग को कदापि नहीं अपनाना चाहिए, क्योंकि लोक-संज्ञा दोबारा संसार के विषम पहाड़ों पर चढ़ाई कराने वाली है। मुनि यह संकल्प करे -मैं तो अपना छठवां गुणस्थान ही कायम रखूगा और सातवें-आठवें गुणस्थान पर पहुंचने के लिए प्रयत्न करता रहूंगा। इस प्रकार, मुनि लोकसंज्ञा से अपने पतन को बचा सकता है।
यथा चिंतामणिं दत्ते बढरो बदरीकलैः। हहा जहाति सद्धर्म तथैव जनरंजनैः ।। 2||
जिस तरह कोई मूर्ख बेर के बदले में चिन्तामणि रत्न देता है, ठीक उसी तरह कोई मूढ़ लोक-रंजनार्थ अपने सद्धर्म को तज देता है।
अर्थात्, यदि तुम सद्धर्म के माध्यम से लोक-प्रशंसा पाना चाहते हो, तो वह कृत्य चिंतामणि-रत्न के बदले बेर खरीदने जैसा है, क्योंकि
875 आचारांगसूत्र- 3/1/178 876 ज्ञानसार, विवेचनकार श्री भद्रगुप्तविजयजी गणीवर, गाथा, 177-184, पृ. 330
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